SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महानिग्रंथीय - सनाथता के पथ पर भी अनाथ कौन? ३८७ ********ktaarakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk सनाथता के पथ पर भी अनाथ कौन? इमा हु अण्णावि अणाहया णिवा!, तमेग-चित्तो णिहुओ सुणेहि। णियंठधम्म लहियाण वि जहा, सीयंति एगे बहु कायरा णरा॥३८॥ कठिन शब्दार्थ - इमा - यह, अण्णावि - अन्य की भी, एगचित्तो - एकाग्रचित्त, णिहुओ - निभृत - स्थिरतापूर्वक, सुणेहि - सुनो, णियंठधम्म - निग्रंथ धर्म को, लहियाणप्राप्त करके, सीयंति - शिथिल हो जाते हैं, बहु कायरा - बहुत से कायर, णरा - मनुष्य। . भावार्थ - हे नृप, हे राजन्! यह दूसरे प्रकार की और भी अनाथता है उसको तुम निभृत-स्थिरता पूर्वक एकाग्रचित्त होकर सुनो जैसे कि निग्रंथ धर्म को प्राप्त करके भी कई एक बहुत-से कायर मनुष्य धर्म के विषय में शिथिल हो जाते हैं। जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, समं च णो फासयइ पमाया। - अणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, ण मूलओ छिण्णइ बंधणं से॥३६॥ कठिन शब्दार्थ - पव्वइत्ताण - प्रव्रजित होकर, महव्वयाइं - महाव्रतों का, समं - सम्यक् प्रकार से, णो फासयइ - पालन नहीं करता, पमाया - प्रमादवश, अणिग्गहप्पा - आत्मा का निग्रह नहीं करता, रसेसु - रसों में, गिद्धे - आसक्त, मूलओ - मूल से, बंधणंबंधन का, ण छिण्णइ - उच्छेद नहीं कर पाता। भावार्थ - जो साधु दीक्षा लेकर प्रमादवश पांच महाव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करता और इन्द्रियों के अधीन होकर रसों में गृद्धिभाव रखता है, वह साधु कर्मों के बन्धन को मूल से नहीं काट सकता है। विवेचन - जो साधक पांच महाव्रतों को स्वीकार तो कर लेता है किंतु प्रमादवश उनका पालन नहीं करता, इन्द्रिय निग्रह भी नहीं करता और रस लोलुप है वह रागद्वेष जन्य कर्मबंधन का मूल से छेदन नहीं कर पाता। क्योंकि आस्रवों का निरोध होने पर ही जीव बंधनों से छूटेगा। प्रमादी जीव कदाचित् दीक्षित होकर थोड़े बहुत कर्मों का क्षय भी कर ले किंतु आस्रव द्वार खुले होने से तथा विषय कषायादि दूर न होने से कर्मबंधन का जड़मूल से सर्वथा उच्छेद वह नहीं कर सकता, अतः वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy