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________________ महानिर्ग्रथीय श्रेणिक विस्मित होम णाहो भयंताणं, भोगे भुंजाहि संजया । मित्तणाइ - परिवुडो, माणुस्सं खु सुदुल्लाहं ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - भयंताणं आप भगवंत का, भुंजाहि - भोगों, मित्तणाइ परिवुडोमित्र और ज्ञातिजनों से परिवृत्त, माणुस्सं मनुष्य जन्म, सुदुल्लहं - अत्यंत दुर्लभ । भावार्थ राजा श्रेणिक कहता है कि हे संयत! मैं आपका नाथ होने को तैयार हूँ। मित्र - - - और ज्ञाति सम्बन्धी जनों से परिवृत्त होते हुए आप भोगों को भोगो, क्योंकि मनुष्य - जन्म निश्चय ही अत्यन्त दुर्लभ है। Jain Education International विवेचन - मुनि द्वारा स्वयं को अनाथ बतलाने पर राजा श्रेणिक को अत्यंत आश्चर्य हुआ किंतु मुनि की भव्य आकृति, शारीरिक संपदा आदि शुभ लक्षणों को देखकर मुनि के नाथ होने का ही अनुमान लगा । अतः मुनि से कहा अगर आप अनाथ हैं तो मैं आपका नाथ बनता हूं। मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता अतः आप साधुत्व का त्याग कर सांसारिक सुखों को भोगो । ३७७ राजा की अनाथता अप्पणा वि अणाहो सि, सेणिया मगहाहिवा ! । अप्पणा अणाहो संतो, कहं णाहो भविस्ससि ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - अप्पणा वि आप स्वयं भी, अणाहो सि- अनाथ हो, मगहाहिवामगधाधिप, संतो - होते हुए, कहं- कैसे, णाहो - नाथ, भविस्ससि - होओगे? - भावार्थ - मगधाधिप हे मगध देश के अधिपति श्रेणिक! तुम स्वयं ही अनाथ हो, स्वयं अनाथ होते हुए तुम दूसरों के नाथ किस प्रकार होओगे ? विवेचन मुनि ने राजा श्रेणिक को सत्य और स्पष्ट बात कह दी कि तुम स्वयं अनाथ हो तो दूसरे के नाथ कैसे बन सकते हो? जो स्वयं निर्धन एवं मूर्ख है वह दूसरों को धनवान एवं पंडित कैसे बना सकता है ? श्रेणिक विस्मित एवं वृत्तो णरिंदो सो, सुसंभंतो सुविम्हिओ । वयणं अस्सुयपुव्वं, साहुणा विम्हयण्णिओ ॥१३॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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