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________________ महानिग्रंथीय - राजा की सविनय पृच्छा ★★★★★★★★★★★★★⭑ राजा श्रेणिक को उक्त मुनि को देखकर अत्यधिक अतुल असाधारण विस्मय तो इसलिए हुआ कि एक तो वे मुनि तरूण थे, तरूणावस्था भोगकाल के रूप में प्रसिद्ध है किंतु उस अवस्था में कदाचित् कोई रोगादि हो या संयम के प्रति अनुद्यत हो तो कोई आश्चर्य नहीं होता किंतु यह मुनि तरूण थे, स्वस्थ थे, समाधि सम्पन्न थे और श्रमण धर्म पालन में समुद्यत थे, यही विस्मय राजा की जिज्ञासा का कारण बना। राजा की सविनय पृच्छा तस्स पाए उ वंदित्ता, काऊण य पयाहिणं । णाइदूर-मणासण्णे, पंजली पडिपुच्छइ ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - पाए चरणों में, वंदित्ता वंदना करके, पयाहिणं - प्रदक्षिणा, ण अइंदूरं न तो बहुत दूर, अणासणे न ही अति निकट, पंजली - हाथ जोड़ कर, पडिपुच्छइ - पूछने लगा । करके, काऊण · भावार्थ - उस मुनि के चरणों में वन्दना करके और प्रदक्षिणा करके न तो बहुत दूर और न बहुत निकट खड़ा हुआ श्रेणिक राजा दोनों हाथ जोड़ कर पूछने लगा । तरुणो सि अज्जो ! पव्वइओ, भोग-कालम्मि संजया । Jain Education International - - *********★★★★★★★★★ - - उवट्ठिओसि सामण्णे, एयमट्टं सुणेमि त्ता ॥ ८ ॥ - कठिन शब्दार्थ - तरुणो सि - तरुण हो, अज्जो - हे आर्य, पव्वइओ - प्रव्रजित हुए हो, भोगकालम्मि - भोगकाल में, संजया हे संयत! उबट्ठिओसि - उपस्थित हुए हो, सामण्णे - श्रमण धर्म में, एयम - इसका क्या कारण है, सुणेमि त्ता मैं सुनना चाहता हूँ। भावार्थ हे आर्य! आप तरुण हैं। हे संयति! इस भोग भोगने की अवस्था में आपने दीक्षा ले ली है और साधु-धर्म में उपस्थित हुए हैं इसका क्या कारण है सो मैं आपसे सुनना चाहता हूँ। विवेचन प्रस्तुत दो गाथाओं में स्पष्ट किया गया है कि साधु महात्मा के पास किस विधि से वंदन, नमन आदि शिष्टाचार करना चाहिए? कैसे बैठना, बोलना और वार्तालाप करना चाहिए ? ३७५ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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