________________
महानियंठिज्जं वीसइमं अज्झयणं
महानिर्ग्रथीय बीसवाँ अध्ययन
उत्थानिका - महानिर्ग्रथीय नामक इस बीसवें अध्ययन में महानिर्ग्रथ अनाथीमुनि द्वारा अनाथ से सनाथ - महानिग्रंथ बनने की कथा राजा श्रेणिक को कही गयी है। इस कथा को सुन कर राजा श्रेणिक की अपने आपको सनाथ मानने की भ्रांत धारणा दूर हो गई और वह सनाथअनाथ के रहस्य को भलीभांति जान कर सम्यक्त्वी बन गया ।
महानिर्ग्रन्थ की चर्या तथा मौलिक सिद्धान्तों और नियमों से संबंधित वर्णन होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'महानिर्ग्रथीय' रखा गया है। इस अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है
मंगलाचरण
सिद्धाणं णमो किच्चा, संजयाणं च भावओ । अत्थधम्मगई तच्चं, अणुसिट्ठि सुणेह मे ॥ १ ॥
कठिन शब्दार्थ - सिद्धाणं - सिद्धों को, णमो नमस्कार, किच्चा - करके, संजयाणंसंयतों को, भावओ - भावपूर्वक, अत्थधम्मगइं - अर्थ मोक्ष और धर्म का गति - बोध कराने वाले, तच्छं - तथ्यपूर्ण, अणुसिट्ठि - अनुशिष्टि - शिक्षा (अनुशासन) का, सुह सुनो, मे - मुझसे ।
भावार्थ - भावपूर्वक सिद्ध भगवान् को और संयत ( महात्माओं को) अर्थात् अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और सभी साधु रूप पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके अर्थ और धर्म का ज्ञान कराने वाली सच्ची अनुशिष्टि- शिक्षा कहूँगा, अतः तुम मुझ से सुनो।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में सिद्धों और संयतों को किया गया नमस्कार मंगलाचरण के लिए है। सिद्धाणं में अरहंतों का तथा संजयाणं में आचार्य, उपाध्याय और सभी साधुओं का समावेश होने से यहां पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके मोक्ष एवं धर्म के अनुशासन - कथन की प्रतिज्ञा की गई है।
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org