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________________ प्रस्तावना .. जैन दर्शन एवं इसकी संस्कृति का मूल आधार सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित वाणी रूप आगम है। प्रभु अपने छद्मस्थ काले में प्रायः मौन रहते हैं। अपने तप संयम की उत्कृष्ट साधना के द्वारा जब वे अपने घाती कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं तब वे वाणी की वागरणा करते हैं। यानी पूर्णता प्राप्त होने के पश्चात् ही प्रभु उपदेश फरमाते हैं और उन की प्रथम देशना में ही चतुर्विध संघ की स्थापना हो जाती है। चूंकि तीर्थंकर प्रभु पूर्णता प्राप्त. करने के पश्चात् ही वाणी की वागरणा करते हैं। अतएव उनके द्वारा फरमाई गई वाणी न तो पूर्वापर विरोधी होती है, न ही युक्ति बाधक। उसी उत्तम एवं श्रेष्ठ वाणी को जैन दर्शन में आप्तवाणी - आगम-शास्त्र-सूत्र कहा गया है। तीर्थंकर प्रभु अर्थ रूप में उपदेश फरमाते हैं जिसे महान् प्रज्ञा के धनी गणधर भगवन्त सूत्र रूप में गूंथित करते हैं। इसीलिए आगमों के लिए यह कहा गया है कि “अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं"। आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधर कृत होने से ही नहीं, किन्तु इसके अर्थ के मूल प्ररूपक तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता एवं सर्वज्ञता है। यही जैन दर्शन के आगम साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य दर्शनों के साहित्य छद्मस्थ कथित होने से उनमें अनेक स्थानों पर पूर्वापर विरोध एवं अपूर्णता रही हुई है। साथ ही जिस सूक्ष्मता से जीवों के भेद-प्रभेद, जीव में पाये जाने वाले ज्ञान, अज्ञान, संज्ञा, लेश्या, योग, उपयोग आदि की व्याख्या एवं अजीव द्रव्यों के भेद-प्रभेद आदि का कथन इसमें मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं मिल सकता। मिले भी कैसे? क्योंकि अन्य दर्शनों के प्रवर्तकों का ज्ञान तो सीमित होता है। जब कि जैन दर्शन के उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु का ज्ञान अनन्त है। इस प्रकार जैनागम हर दृष्टि से भूतकाल में श्रेष्ठ था, वर्तमान में श्रेष्ठ है और भविष्य काल में भी श्रेष्ठ रहेगा। तीर्थंकर प्रभु जैसा अपने केवलज्ञान से जानते हैं और केवलदर्शन से देखते हैं, वैसा ही निरूपण करते हैं। . वर्तमान स्थानकवासी परम्परा बत्तीस आगमों को मान्य करती है। जिनमें द्वादशांगी की रचना, जिन्हें अंग सूत्र कहा जाता है, गणधर भगवन्त करते हैं। शेष आगमों की रचना स्थविर भगवन्तों द्वारा की जाती है। जो स्थविर भगवन्त सूत्र की रचना करते हैं, वे दस पूर्वी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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