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________________ मृगापुत्रीय - मृगचर्या और साधुचर्या ३६५ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ जहा मिगे एगे अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोयरे य। एवं मुणी गोयरियं पविटे, णो हीलए णो वि य खिंसएज्जा॥४॥ कठिन शब्दार्थ - एगे - अकेला, अणेगचारी - अनेक स्थानों में विचरता है, अणेगवासेअनेक स्थानों में निवास करता है, धुवगोयरे - ध्रुवगोचर - सदैव गोचरी से जीवन यापन करता है, गोयरियं - गोचरी के लिए, पविढे - प्रविष्ट हुआ, णो हीलए - अवहेलना न करे, णो वि खिंसएज्जा - निन्दा भी न करे। __भावार्थ - जिस प्रकार मृग अकेला अनेक स्थानों पर भ्रमण करने वाला, किसी एक नियत स्थान पर निवास नहीं करने वाला और ध्रुवगोचर-सदैव गोचरी जाने वाला अर्थात् जंगल में घास पानी के लिये जाने वाला एवं जो कुछ मिलता है उसे खा कर संतोष करने वाला होता है उसी प्रकार मुनि भी गोचरी के लिए जाता है। अच्छा आहार न मिलने पर दाता की अथवा आहार की अवहेलना नहीं करे और निन्दा भी नहीं करे। विवेचन - साधु जीवन में चिकित्सा नहीं कराने से होने वाले कष्ट के उत्तर में मृगापुत्र अपने माता पिता से कहते हैं कि - मैं मृगचर्या के समान आचरण करूंगा। जैसे वन में रहने, वाले मृग आदि बीमार पड़ जाते हैं तब कौन उन्हें दवा लाकर देता है, कौन उनसे सुख-दुःख की बात पूछता है? कौन उनके लिए घास-पानी लाकर खिलाता पिलाता है? बेचारे स्वस्थ होने तक आहार पानी छोड़ कर चुपचाप बैठे रहते हैं। जब वे स्वस्थ हो जाते हैं तब स्वयं गोचर भूमि में लता निकुंजों और जलाशयों की खोज करते हैं और वहां यथेच्छ खा पी कर स्व स्थान लौट जाते हैं। उनकी यह मृगचर्या उन्हें कष्टप्रद महसूस नहीं होती। इसी मृगचर्या का मैं भी अनुसरण करूंगा। मैं भी तप संयम के साथ एकाकी हो कर वीतराग प्ररूपित श्रमण धर्म का आचरण करूंगा। अस्वस्थ होने पर मुझे भी किसी से कोई अपेक्षा नहीं रहेगी कि कोई मुझे औषध देता है या नहीं, मुझे कोई सुखसाता पूछता है या नहीं? कोई आहार पानी लाकर देता है या नहीं? किंतु जब मैं स्वस्थ होऊंगा तब स्वयं ही अनेक घरों से निर्दोष आहार पानी लाकर जीवनयापन करूंगा। गोचरी में मुझे अच्छा या बुरा जैसा भी निर्दोष आहार मिलेगा उसे ग्रहण करके मैं दाता का तिरस्कार या निंदा नहीं करूंगा। किंतु समभावों में रमण करूंगा। इस प्रकार मृगचर्या का अनुसरण करने वाले संयम में उद्यत मुनि मोक्ष को प्राप्त कर लेता है अतः मैं भी वैसा ही आचरण करूंगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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