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________________ मृगापुत्रीय - कामभोग दुःखदायी ३३६ *****************************************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkxx कठिन शब्दार्थ - सुयाणि - सुना है, मे - मैंने, पंच - पांच, महव्वयाणि - महाव्रतों को, णरएसु - नरकों में, दुक्खं - दुःख, तिरिक्खजोणिसु - तिर्यंच योनि में, णिविणकामो - काम विरक्त, महण्णवाओ - महार्णव - संसार रूप महासागर से, अणुजाणह- मुझे आज्ञा दीजिये, पव्वइस्सामि - दीक्षा लूंगा, अम्मो - हे माता! . ____ भावार्थ - हे माता पिताओ! मैंने पूर्वजन्म में जिन पांच महाव्रतों का पालन किया था, उन्हें मैंने जान लिया है और नरक गति में तथा तिर्यंच योनि में भोगे हुए दुःखों को भी स्मरण कर जान लिया है इसलिए मैं महार्णव - संसार रूपी महासमुद्र से निवृत्त होने का अभिलाषी हूँ। -मुझे आज्ञा दीजिये मैं दीक्षा लूँगा। विवेचन - इस गाथा में मृगापुत्र ने माता-पिता को कहा कि - मैंने पूर्व भव में पांच महाव्रतों का पालन किया था तथा आठवीं गाथा में मृगापुत्र के लिए देवलोक से च्यव कर इस मनुष्य भव में आना बताया है। इन दोनों बातों की संगति बिठाते हुए पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव फरमाया करते थे - भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों में से प्रथम एवं चरम तीर्थंकर के शासन में ही पांच महाव्रत रूप संयम धर्म होता है। २४ वें तीर्थंकर का शासनकाल २१००० वर्षों का बताया है तथा प्रथम तीर्थंकर का शासनकाल ५० लाख करोड़ सागरोपम का होता है। मृगापुत्र ने इस भव में भी पांच महाव्रत रूप श्रमण धर्म को अंगीकार किया था। पूर्व के भव में एवं इस भव में पांच महाव्रत रूप श्रमण धर्म स्वीकार करना एवं बीच में वैमानिक देव का भव करना, ये सब भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में ही घटित हो सकता है। इत्यादि आधारों से मृगापुत्र भगवान् ऋषभदेव के शासन में हुए, ऐसा बहुश्रुत गुरुदेव फरमाया करते थे। समर्थ समाधान भाग ३ में भी इस संबंधी विस्तृत उत्तर दिया गया है। कामभोग दुःखदायी अम्म-ताय! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कडुयविवागा, अणुबंध-दुहावहा॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - अम्मताय - हे माता पिताओ! मए - मैंने, भोगा - कामभोगों को, भुत्ता - भोग चुका हूं, विसफलोवमा - विषफल के समान, पच्छा - बाद में, कडुयविवागाकटु विपाक वाले, अणुबंध दुहावहा - निरन्तर दुःख देने वाले। भावार्थ - हे माता-पिताओ! मैंने कामभोगों को भोग कर इनका परिणाम जान लिया है भोगने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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