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________________ मृगापुत्रीय - मृगापुत्र को जाति स्मरण ज्ञान ३३७ AAAAAAAAAAAAAkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk********* भावार्थ - मृगापुत्र उस मुनि को अनिमेष-आँख टमकारे बिना एक टक दृष्टि से देखने लगा और मन में सोचने लगा कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार का रूप मैंने पहले कहीं अवश्य देखा है। साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि-सोहणे। मोहं गयस्स संतस्स, जाइसरणं समुप्पण्णं॥७॥ कठिन शब्दार्थ - साहुस्स - साधु के, दरिसणे - दर्शन से, तस्स - उस, अज्झवसाणम्मि सोहणे - अध्यवसायों के शुद्ध हो जाने पर, मोहं - मोह को, गयस्ससंतस्सप्राप्त होने पर-उपशांत होने पर, जाइसरणं - जातिस्मरण ज्ञान, समुप्पण्णं - उत्पन्न हो गया। भावार्थ - उस साधु को देखने पर मोहनीय (चारित्र मोहनीय) कर्म के उपशांत (देश उपशम-मंद) होने पर तथा अध्यवसायों (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले आन्तरिक परिणामों) की विशुद्धि होने से मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। विवेचन - मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम तो 'उपशान्त मोहनीय गुणस्थान' वाले संयमी साधकों के ही होता है। अतः यहाँ पर इस गाथा में प्रयुक्त ‘गयस्स संतस्स' (उपशांत) शब्द का आशयपूर्ण उपशम होना नहीं समझ कर 'देश उपशम' समझना चाहिए। अर्थात् 'चारित्र मोहनीय कर्म की मंदता' होना समझना चाहिये। जाति स्मरण ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है। वह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। मोहनीय कर्म के उपशम से नहीं होता है। आगम में क्षायिक ज्ञान (केवलज्ञान) एवं क्षायोपशमिक ज्ञान (मति आदि चार ज्ञान) ही बताये हैं। औपशमिक ज्ञान नहीं बताया है अतः 'जातिस्मरण' को क्षायोपशमिक समझना है। मोहनीय कर्म के उपशम से नहीं समझना। देवलोग चुओ संतो, माणुसं भवमागओ। सण्णिणाणे-समुप्पण्णे, जाइं-सरइ-पुराणियं॥८॥ कठिन शब्दार्थ - देवलोगे - देवलोक से, चुओ संतो - च्युत होकर, माणुसं भवं - मनुष्य भव में, आगओ - आया हूँ, सण्णिणाणे - संज्ञी ज्ञान, समुप्पण्णे - उत्पन्न होने पर, जाई - जाति को, पुराणियं - पूर्व, सरइ - स्मरण करता है। . . भावार्थ - संज्ञिज्ञान-जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर वह मृगापुत्र अपने पूर्व-जन्म को स्मरण करने लगा कि मैं देवलोक से चव कर मनुष्य भव में आया हूँ। विवेचन - साधु को एकटक देखने पर मृगापुत्र हर्षित हो सोचने लगा कि ऐसा रूप मैंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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