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उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
भावार्थ - जैसे सड़े कानों वाली कुत्ती सभी स्थान से निकाली जाती है, इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला, गुरुजनों के विरुद्ध आचरण करने वाला, वाचाल साधु सभी स्थानों (गच्छ-संघ आदि) से निकाला जाता है। - विवेचन - इस गाथा में जो दृष्टान्त दिया गया है वह स्वेच्छाचारी चारित्रभ्रष्ट अविनीत शिष्य के साथ बड़ा ही घनिष्ठ संबंध रखता है। जैसे सड़े कानों वाली कुतिया गृह आदि निवास योग्य स्थानों में रखने लायक नहीं है ठीक उसी प्रकार स्वेच्छाचारी गुरुजनविद्वेषी और चारित्रभ्रष्ट अविनीत शिष्य भी संघ आदि में स्थान देने योग्य नहीं है।
अविनीत शिष्य का व्यवहार कणकुंडगं चइत्ताणं, विट्ठे भुंजइ सूयरो। एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए॥५॥
कठिन शब्दार्थ - कणकुंडगं - चावल के कुण्डे को, चइत्ताणं - छोड़ कर, विटुं - विष्ठा को, भुंजइ - खाता है, सूयरे - सूअर, सीलं - शील - सुंदर आचार को, दुस्सीले - दुःशील - दुराचार में, रमइ - रमण करता है, मिए - मृग। . - भावार्थ - जैसे सूअर चावल के कुंडे को छोड़ कर विष्ठा खाता है, इसी प्रकार मृग के समान अज्ञानी साधु भी सदाचार को त्याग कर दुःशील (दुष्ट आचार) में रमण करता है। . . - विवेचन - यहाँ अविनीत साधु को सूअर और मृग की उपमा दी है। सूअर का उदाहरण है कि - जैसे सूअर के आगे बढ़िया चावल का कुंडा रखा गया हो और उसे वह खा रहा हो परन्तु दूसरी तरफ कोई बच्चा टट्टी चला गया हो और सूअर को उसकी गंध आ गई हो, तो वह चावल को खाना छोड़ कर विष्ठा खाने के लिए चला जाता है। इसी प्रकार अविनीत शिष्य भी विनय को छोड़ कर अविनय में रमण करता है। जैसे मृग तृण घास आदि के प्रत्यक्ष सुख को देखता है, किन्तु पाश (बन्धन) के दुःखों का विचार नहीं करता, इसी प्रकार अविनीत साधु भी वर्तमान के सुखों को देखता है, किन्तु अविनय के बुरे एवं दुःखदायी फल का विचार नहीं करता।
. विनयाचरण का उपदेश सुणिया भावं साणस्स, सूयरस्स णरस्स य। विणए ठविज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो॥६॥
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