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________________ पावसमणि णामं सत्तरसमं अज्झयणं पापश्रमणीय नामक सत्तरहवां अध्ययन उत्थानिका - सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य का वर्णन किया गया है। ब्रह्मचर्य साधना में लीन रहने वाला श्रेष्ठ श्रमण होता है। जो ब्रह्मचर्य की उपेक्षा व अवहेलना करता है वह 'पापश्रमण' है। इस सतरहवें अध्ययन में पापश्रमण का वर्णन किया गया है। अतः इस अध्ययन का नाम 'पापश्रमणीय' है। ___पन्द्रहवें सभिक्षु अध्ययन में जहां आदर्श श्रमण का अंतरंग दर्शन कराया गया है वहाँ इस सतरहवें अध्ययन में उसके विपरीत सिर्फ वेशधारी ऐसे साधु की वृत्तियों पर प्रकाश डाला गया है, जो अपने नियम, मर्यादा एवं आचार की उपेक्षा करता है। इसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है पापश्चमणता का प्रारम्भ - जे केइ उ पव्वइए णियंठे, धम्मं सुणित्ता विणओववण्णे। सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभं, विहरेज्ज पच्छा य जहासुहं तु॥१॥ कठिन शब्दार्थ - जे केइ - कोई एक, पव्वइए - प्रव्रजित, णियंठे - निर्ग्रन्थ, धम्मधर्म को, सुणित्ता - सुन कर, विणओववण्णे - विनयोपपन्न - विनय संपन्न हो कर, सुदुल्लहं- सुदुर्लभ, लहिउँ - प्राप्त करके, बोहिलाभं - बोधि लाभ को, विहरेज्ज - विचरे, जहासुहं - यथासुख - सुखशील बनकर। भावार्थ - श्रुत-चारित्र रूप धर्म को सुन कर, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी विनय.से युक्त होकर, अत्यन्त दुर्लभ, बोधि अर्थात् समकित प्राप्त करके कोई एक दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ बना है, किन्तु दीक्षा लेने के बाद जिस प्रकार सुख प्रतीत हो उस प्रकार स्वच्छन्दता पूर्वक विचरता है अर्थात् कोई-कोई पुरुष. पहले तो सिंह की भांति शूरवीर होकर दीक्षा लेता है, किन्तु पीछे श्रृगाल के समान कायर बन जाता है। सेज्जा दढा पाउरणम्मि अस्थि, उप्पज्जइ भोत्तुं तहेव पाउं। जाणामि जं वइ आउसुत्ति, किं णाम काहामि सुएण भंते॥२॥ .. • कठिन शब्दार्थ - सेज्जा - वसति या धर्मस्थान, दढा - दृढ, पाउरणं - तन ढकने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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