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________________ २८६ उत्तराध्ययन सूत्र - सोलहवां अध्ययन . भावार्थ - इस विषय में कुछ श्लोक हैं। वे इस प्रकार हैं - १. प्रथम बाड़ गुप्ति) - विविक्त शयनासन जं विवित्तमणाइण्णं, रहियं इत्थी जणेण य। बंभचेरस्स रक्खट्ठा, आलयं तु णिसेवए॥१॥ • कठिन शब्दार्थ - विवितं - विविक्त-एकान्त, अणाइण्णं - अनाकीर्ण, रहियं - रहित, इत्थीजणेण - स्त्रीनन से, बंभचेरस्स - ब्रह्मचर्य की, रक्खट्ठा - रक्षा के लिये, आलयं - निवास स्थान का, णिसेवए - सेवन करे। ___ भावार्थ - जो स्थान विविक्त (एकान्त) हो अर्थात् जहाँ स्त्री आदि का निवास न हो, जो स्त्री आदि से आकीर्ण-व्याप्त न हो और जो स्थान स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधु ऐसे स्थान का सेवन करे। विवेचन - अनाकीर्ण और स्त्रीजन रहित का टीकाकार विशेष अर्थ करते हुए सूचित करते हैं कि - रात में तो स्त्रियों का आवागमन न हो किंतु दिन में भी व्याख्यान, प्रत्याख्यान या शास्त्र वाचना आदि योग्य काल के अलावा वहां साध्वियों या श्राविकाओं का आवागमन न हो तभी ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हो सकती है। २. द्वितीय बाड़ - स्त्री कथा वर्जन मणपल्हायजणणिं, कामरागविवड्डणिं। बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए॥२॥ कठिन शब्दार्थ - मणपल्हायजणणिं - मन को आनंद पैदा करने वाली, कामरागविवणिंकामराग को बढ़ाने वाली, बंभचेररओ - ब्रह्मचर्य में रत, थीकहं - स्त्रीकथा का, विवज्जए - "त्याग करे। . ... भावार्थ - ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में विकारी-भावजन्य आनंद उत्पन्न करने वाली तथा कामभोगों में आसक्ति बढ़ाने वाली स्त्री-कथा को त्याग दे। .. . ... ३. तीसरी बाड़ - स्त्री के साथ एकासन निवध समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं। बंभचेररओ भिक्खू, णिच्चसो परिवज्जए॥३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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