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णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
श्री उत्तराध्ययन सूत्र
भाग-१ (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) . विणयसुयं णामं पटमं अज्झयणं
विनयश्रुत नामक प्रथम अध्ययन उत्थानिका - प्रभु महावीर ने विनय को धर्म का मूल कहा है। विनय धर्म में ही आत्मा के असीम सुख का मूल निहित है। इसीलिए अपनी प्रथम देशना से लेकर अंतिम देशना तक अनेक बार प्रभु ने विनय धर्म का प्रतिपादन किया है। प्रभु ने अपनी अंतिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र में धर्म तत्त्व के प्रतिपादन का प्रारम्भ ही विनयाध्ययन के रूप में किया है। प्रस्तुत अध्ययन में विनय का स्वरूप बतलाते हुए विनीत और अविनीत शिष्य के व्यवहारों को स्पष्ट किया गया है। इस अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है -
विनय का स्वरूप संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे॥१॥
कठिन शब्दार्थ - संजोगा - संयोग से, विप्पमुक्कस्स - विप्रमुक्त, अणगारस्स - अनगार, भिक्खुणो - भिक्षु का, विणयं - विनय, पाउकरिस्सामि - प्रकट करूँगा, आणुपुव्विंअनुक्रम से, सुणेह, - सुनो, मे - मुझ से।
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