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________________ २७० उत्तराध्ययन सूत्र - पन्द्रहवां अध्ययन *********★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ ★★★★★★★★★★★★ भावार्थ - गृहस्थों के घर से मिले हुए निर्दोष ओसामण ( चावल आदि का पानी) और यवोदन - जौ का दलिया और ठंडा आहार, कांजी आदि का पानी और यवोदक - जौ का पानी और नीरस आहारादि के मिलने पर जो उसकी अवहेलना ( निंदा) नहीं करता तथा प्रान्त कुल ( दरिद्र कुल ) एवं सामान्य स्थिति के घरों में भी भिक्षावृत्ति करता है, वह भिक्षु है। विवेचन जो भिक्षु गृहस्थ से नीरस आहार पानी प्राप्त कर उस गृहस्थ की या उस पिण्ड की निन्दा नहीं करता और न ही उस आहार पानी की अवहेलना अवज्ञा करके फेंकता है अपितु उसे समभाव से उदरस्थ कर लेता है तथा साधारण घरों में (निर्धनों के यहां ) भी निर्दोष आहार के लिए जाता है, वह सच्चा भिक्षु है। सद्दा विविहा भवंति लोए, दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा । भीमा भयंभेरवा उराला, सोच्चा ण विहिज्जइ स भिक्खू ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ सद्दा - शब्द, विविहा - नाना प्रकार के, भवंति - होते हैं, लोएलोक में, दिव्वा - देव संबंधी, माणुसगा मनुष्य संबंधी, तिरिच्छा - तिर्यंच संबंधी, भीमा - भयंकर - रौद्र, भयभेरवा विहिज्ज - नहीं डरता है। भय से भैरव, उराला प्रधान, सोच्चा - सुन कर ण - Jain Education International - भावार्थ लोक में देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यंच सम्बन्धी नाना प्रकार के भयंकर, भयोत्पादक और उदार - महान् शब्द होते हैं, उन्हें सुन कर जो भयभीत हो कर धर्मध्यान से चलित नहीं होता, वह भिक्षु है। वादं विविहं समिच्च लोए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पणे अभिभूय सव्वदंसी, उवसंते अविहेडए स भिक्खू ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - वादं - वाद को, समिच्च - जान करके, सहिए - सहित दर्शन चारित्र से युक्त, खेयाणुगए - खेदानुगत खेद अर्थात् संयम में अनुगत, कोवियप्पा कोविदात्मा-विद्वान्, पण्णे प्राज्ञ, अभिभूय परीषहों को जीत कर, सब के प्रति समदर्शी, उवसंते सव्वदंसी - सर्वदर्शी - किसी को विघ्न नहीं उपशान्त, अविहेडए - अविहेढक · - - · - For Personal & Private Use Only ज्ञान पहुँचाता । भावार्थ - लोक में प्रचलित नाना प्रकार के वादों को जान कर जो कोविद आत्मा-विचक्षण साधु अपने आत्म-धर्म में स्थिर रहता हुआ, संयम में दत्तचित्त रहता है। जो बुद्धिमान् साधु सभी - www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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