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________________ २५६ ___ उत्तराध्ययन सूत्र - चौदहवां अध्ययन ********************************************************** मूर्च्छित, उज्झमाणं - जलते हुए, ण बुज्झामो - नहीं समझते, रागहोसगिणा - राग द्वेष की अग्नि में, जगं - जगत को। भावार्थ - जैसे वन में दावाग्नि लगने से और उसमें जीवों को जलते हुए देख कर दूसरे प्राणी रागद्वेष के वश होकर प्रसन्न होते हैं, किन्तु वे बिचारे यह नहीं जानते हैं कि बढ़ती हुई यह दावाग्नि हमें भी भस्म कर देगी, इसलिए हमें इससे बचने का उपाय करना चाहिये, इसी प्रकार कामभोगों में मूर्च्छित बन कर हम अज्ञानी लोग भी यह नहीं समझते कि सारा संसार राग द्वेष रूपी अग्नि से जल रहा है। यह अग्नि हमें भी जला देगी, इसलिए हमें इस अग्नि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। विवेकी पुरुष का कर्तव्य भोगे भुच्चा वमित्ता य, लहुभूयविहारिणो। आमोयमाणा गच्छंति, दिया कामकमा इव ॥४४॥ कठिन शब्दार्थ - भोगे - भोगो को, भुच्चा - भोग कर, वमित्ता - त्याग कर, लहुभूय विहारिणो - लघुभूत होकर विहार करते हुए, आमोयमाणा - आनंदित होते हुए, गच्छंति - गमन करते हैं, दिया - पक्षी की, कामकमा - स्वेच्छा पूर्वक विचरने वाले, इवतरह। भावार्थ - जो विवेकी मनुष्य होते हैं वे आयु पर्यन्त काम-भोगों में खुचे हुए नहीं रहते किन्तु पहले भोगे हुए काम भोगों को छोड़ कर प्रसन्नता के साथ संयम स्वीकार करते हैं और जैसे पक्षी अपनी इच्छानुसार आकाश में उड़ते हैं, उसी प्रकार वे भी वायु के समान लघुभूत होकर अप्रतिबद्ध विहार करते हैं। इमे य बद्धा फंदंति, मम हत्थाजमागया। वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे॥४५॥ कठिन शब्दार्थ - बद्धा - नियंत्रित किए हुए, पदति - अस्थिर (क्षणिक) हैं, मम - मेरे, हत्थ - हाथ में, अज - हे आर्य!, आगया - आये हुए, वयं - हम, सत्ता - आसक्त, भविस्सामो - होंगे, जहा - जैसे, इमे - ये। भावार्थ - हे आर्य! अपने को प्राप्त हुए काम-भोगों में हम गृद्ध बने हुए हैं किन्तु अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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