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________________ २३२ उत्तराध्ययन सूत्र - तेरहवां अध्ययन ★★★★★★★★★★★ ****************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk . चित्तमुनि का विहार ण तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी, गिद्धो सि आरम्भपरिग्गहेसु। मोहं कओ इत्तिउ विप्पलावो, गच्छामि रायं! आमंतिओ सि॥३३॥ कठिन शब्दार्थ - तुज्झ - तुम्हारी, चइऊण - छोड़ने की, ण बुद्धी - बुद्धि नहीं है, गिद्धोसि - आसक्त हो, आरंभ परिग्गहेसु - आरंभ और परिग्रह में, मोहं कओ - निष्फल किया, इत्तिउ - इतना, विप्पलावो - विप्रलाप, आमंतिओ सि - तुम्हें संबोधित किया। भावार्थ - मुनि के इतना कहने पर भी जब राजा ने उनका उपदेश न माना, तो. मुनि ने उदासीन भाव से कहा तुम्हारी भोगों को छोड़ने की बुद्धि नहीं है और तुम आरम्भ और परिग्रह में आसक्त हो रहे हो, हे राजन्! मैंने व्यर्थ ही इतना विप्रलाप बकवाद किया अतएव अब आपको सूचित कर के मैं जाता हूँ। . ब्रह्मदत्त का नरक गमन पंचालराया वि य बंभदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। अणुत्तरे भुंजिय काम-भोगे, अणुत्तरे सो णरए पविट्ठो॥३४॥ कठिन शब्दार्थ - अकाउं - स्वीकार नहीं किया, अणुत्तरे - अनुत्तर (उत्कृष्ट), भुंजियभोग कर, णरए - नरक में, पविट्ठो - प्रविष्ट हुआ। भावार्थ - उस साधु के उपदेश का पालन नहीं कर के और प्रधान काम-भोगों को भोग कर वह पंचाल देश का राजा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्रधान नरक में (सातवीं नरक के अप्रतिष्ठान नामक पांचवें नरकावास में) उत्पन्न हुआ। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में निदान पूर्वक किये जाने वाले कर्मों का फल तथा कामभोगों में अत्यंत आसक्ति रखने का दुष्परिणाम बताया गया है। चित्त का मुक्ति गमन उपसंहार चित्तो वि कामेहिं विरत्तकामो, उदग्गचारित्ततवो महेसी। अणुत्तरं संजम पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगई गओ॥ त्ति बेमि॥ ३५॥ || तेरसमं अज्झयणं समत्तं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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