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________________ चित्तसंभूतीय एकत्व भावना *******★★★★★ ण तस्स दुक्खं विभयंति णाइओ, ण मित्तवग्गा ण सुया ण बंधवा । इक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाई कम्मं ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - ण विभयंति - विभाग नहीं कर सकते, दुक्खं दुःख का, णाइओज्ञाति जन, ण मित्तवग्गा न मित्र वर्ग, ण सुया न पुत्र, ण बंधवा न बंधु, एक्को अकेला, सयं - स्वयं, पच्चणु होइ - भोगता है, कत्तारमेव कर्त्ता का ही, अणुजाइ - अनुसरण करता है। भावार्थ - उस पापी जीव के दुःख को जाति वाले नहीं बंटा सकते, न मित्र-मंडली न पुत्र न बन्धु लोग ही उसके दुःख में भाग ले सकते हैं। वह स्वयं अकेला ही दुःख भोगता है, क्योंकि कर्म कर्त्ता का ही अनुसरण करता है ( कर्त्ता को ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है ) । ***** - Jain Education International - - O विवेचन जैसे हजारों गौओं में से बछड़ा अपनी माता को ढूंढ़ लेता है अथवा जैसे पुरुष की छाया पुरुष के पीछे ही जाती है उसी प्रकार कर्म भी कर्त्ता के पीछे ही जाता है अर्थात् जिसने कर्म किए हैं वह जीव अकेला ही अपने किये हुए कर्म के फलस्वरूप दुःख का स्वयमेव अनुभव करता है । ज्ञातिजन आदि कोई भी उसके दुःखों का विभाग नहीं कर सकता है। - एकत्व भावना चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धण्णधणं च सव्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - चिच्चा - छोड़ कर, दुपयं - द्विपद को, चउप्पयं खेतं क्षेत्र को, हिं गृह को, धण्ण धणं संहित दूसरा, अवसो परवशता से, पयाइ सुन्दर, पावगं - असुंदर ( पाप युक्त ) । भावार्थ - यह आत्मा द्विपद और चतुष्पद, क्षेत्र, घर, धान्य और धन और वस्त्रादि इन सभी को यहीं छोड़ कर परवश होकर अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ सुन्दर स्वर्गादि अथवा पापकारी नरकादि रूप परभव में जाता है। - - - For Personal & Private Use Only २२७ - - चतुष्पदको, धान्य, धन को, सकम्मबीओ - कर्म प्राप्त करता है, परं भव परभव को, सुंदर - विवेचन जिन पदार्थों पर इस जीव का अत्यंत प्रेम था मृत्यु के समय उन सब को छोड़ कर परवश होकर आत्मा स्वकृत कर्म के अनुसार अकेली ही उत्तम या अधम गति को प्राप्त कर लेती है। www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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