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________________ २२२ उत्तराध्ययन सूत्र - तेरहवां अध्ययन ************************************************************* महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाणुगीया णरसंघ-मज्झे। जं भिक्षुणो सीलगुणोववेया, इहं जयंते समणो म्हि जाओ॥१२॥... कठिन शब्दार्थ - महत्थरूवा - महार्थ रूप वाली, वयणप्पभूया - अल्प अक्षरों वाली, गाहाणुगीया - गाथा गाई, णरसंघमझे - जनसमुदाय में, सीलगुणोववेया - शील गुण से युक्त होकर, जयंते - अर्जित करते हैं, समणो - श्रमण। - भावार्थ - जिस गाथा को सुन कर भिक्षु शील गुण से (ज्ञान और चारित्र से) युक्त होकर इस जिन-शासन में यत्नवंत होते हैं ऐसी महान् अर्थ वाली और थोड़े अक्षरों वाली गाथा का स्थविर मुनियों ने जनसमुदाय में प्रतिपादन किया। उसी गाथा को सुन कर मैं साधु हुआ हूँ। विवेचन - चित्त मुनि कहते हैं मैंने किसी दुःख से व्याप्त होकर दीक्षा अंगीकार नहीं की किन्तु इन लौकिक सुखों की अपेक्षा विशेष अधिक और अविनाशी मोक्ष सुख की अभिलाषा से इनका त्याग किया है। __चक्रवर्ती का समृद्धि वर्णन उच्चोयए मह कक्के य बंभे, पवेड्या आवसहा य रम्मा।, इमं गिहं चित्त! धणप्पभूयं, पसाहि पंचाल-गुणोववेयं॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - उच्चोयए - उच्च उदक, महु - मधु, कक्के - कर्क, बंभे :- ब्रह्म, पवेइया - कहे गए हैं, आवसहा - आवास, प्रासाद, रम्मा - रमणीय, गिहं - घर, धणप्पभूयं - धन से प्रभूत, पंचाल गुणोववेयं - पांचाल देश के गुणों से युक्त, पसाहि - स्वीकार करो। भावार्थ - ब्रह्मदत्त कहने लगा कि उच्च+उदक, मधु, कर्क और मध्य तथा ब्रह्म ये पांच प्रकार के प्रासाद (भवन) कहे गये हैं, वे मेरे यहाँ हैं तथा मेरे और भी रमणीय भवन हैं। हे चित्त! इन्हें तथा प्रचुर धन से युक्त और पांचाल देश के विशिष्ट शब्दादि गुण युक्त इस भवन का तुम उपभोग करो। चक्रवर्ती द्वारा मुनि को भोगों का आमंत्रण णहेहिं गीएहि य वाइएहिं, णारी-जणाहिं परिवारयंतो। भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू!, मम रोयइ पव्वजा हु दुक्खं॥१४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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