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________________ २०८ उत्तराध्ययन सूत्र - बारहवां अध्ययन kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk मस्तक, पसारिया - फैली हुई, बाहू - भुजाएं, अकम्मचिट्ठे - क्रिया चेष्टा रहित, णिन्भेरियच्छेफटी हुई आंखें, रुहिरं वमंते - मुख से रुधिर निकल रहा था, उहं मुहे - ऊपर की ओर मुंह किये हुए, णिग्गयजीहणेत्ते - निकली हुई जीभ और आंखें, कट्ठभूए - काष्ट की तरहनिश्चेष्ट, विमणो - मन उदास, विसण्णो - विषाद युक्त, माहणो - ब्राह्मण, पसाएइ - प्रसन्न करने लगा, सभारियाओ - पत्नी सहित, हीलं - हीलना, जिंदं - निंदा, खमाह - क्षमा करे। ___ भावार्थ - जिनके सुन्दर मस्तक पीठ की ओर नीचे झुका दिये गये थे, जिनकी भुजाएं फैली हुई थी जो कर्मचेष्टा से शून्य हो गये थे, जो आँखें फाड़े हुए थे, जो ऊपर की ओर मुंह किये हुए थे, जिनकी जीभ और आँखें निकली हुई थीं, ऐसे रुधिर का वमन करते हुए उन छात्रों को काष्ठवत् निश्चेष्ट, देख कर इसके बाद शून्य चित्त और खेदखिन्न हुआ वह यज्ञवाट का अधिप्रति रुद्रदेव ब्राह्मण अपनी भार्या के साथ ऋषि को प्रसन्न करने लगा और कहने लगा, हे भगवन्! हमसे की गई अवज्ञा और निंदा के लिए आप क्षमा कीजिये। विवेचन - यक्ष के कोप से उन कुमारों की जो दशा हो रही थी उसी का दिग्दर्शन इस गाथा में किया गया है। सोमदेव ने जब उन कुमारों की ऐसी दशा देखी तो उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ और अपनी भार्या भद्रा को साथ में लेकर ऋषि को प्रसन्न करने के लिए अपने अपराधों की क्षमा मांगने लगा। बालेहि मूढेहि अयाणएहिं, जं हीलिया तस्स खमाह भंते!। महप्पसाया इसिणो हवंति, ण हु मुणी कोवपरा हवंति॥३१॥ कठिन शब्दार्थ - बालेहि - बालकों ने, मूढेहि - मूढों ने, अयाणएहिं - अज्ञानियों ने, हीलिया - अवहेलना की है, महप्पसाया - महा प्रसन्नचित्त, कोवपरा - कोप युक्त। भावार्थ - हे भगवन्! इन मूढ अज्ञानी बालकों ने जो आपकी अवहेलना की है उसके लिए क्षमा कीजिये। ऋषि तो अति प्रसन्नचित्त एवं कृपालु होते हैं, मुनि निश्चय ही कोप करने वाले नहीं होते। पुव्विं च इण्डिं च अणागयं च, मणप्पओसो ण मे अस्थि कोई। जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए णिहया कुमारा॥३२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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