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________________ बहुश्रुतपूजा - बहुश्रुतता का फल १६१ **************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk (बहुत ऊँचा) है और नाना प्रकार की औषधियों एवं जड़ी-बूटियों से प्रज्वलित रहता है। उसी प्रकार बहुश्रुत साधु होता है। । १६. स्वयंभूरमण समुद्र की उपमा जहा सयंभूरमणे, उदही अक्खओदए। णाणा रयण-पडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - सयंभूरमणे - स्वयंभूरमण, उदही - समुद्र, अक्खओदए - अक्षय उदक (जल) को धारण करने वाला, णाणारयणपडिपुण्णे - नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण। भावार्थ - जिस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र अक्षय जल वाला और नाना प्रकार के रत्नों से भरा हुआ है, इसी प्रकार बहुश्रुत साधु होता है अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र के समान बहुश्रुत अक्षय (अखूट) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न और विविध अतिशय रूप रत्नों से शोभित होता है। . बहुक्षुतता का फल .. समुद्द-गंभीर-समा दुरासया, अचक्किया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया॥३१॥ कठिन शब्दार्थ - समुद्दगंभीरसमा - समुद्र के समान गंभीर, दुरासया - दुष्पराजेय - अभिभूत न होने वाला, अचक्किया - अचक्रिता - अविचलित (अपराजित), केणइ - किसी से भी, दुप्पहंसया - नहीं जीता जा सकने वाला, सुयस्स - श्रुत से, पुण्णा - पूर्ण, विउलस्स - विपुल, ताइणो- त्राता-रक्षक, कम्मं - कर्मों का, खवित्तु - क्षय करके, उत्तमंउत्तम, गई - गति को, गया - प्राप्त हुआ। भावार्थ - समुद्र के समान गंभीर वाद में किसी से न जीते जा सकने वाले त्रास-भय रहित, किसी भी परीषह आदि से अभिभूत न होने वाले विपुल श्रुतज्ञान से पूर्ण छह काया के रक्षक इन गुणों से सम्पन्न बहुश्रुत अन्त में ज्ञानावरणीयादि सभी कर्मों का क्षय कर उत्तम प्रधान गति (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं और होते हैं। विवेचन - इस प्रकार उपर्युक्त गाथाओं में सोलह प्रकार की उपमाओं से उपमित करके आगमकार ने बहुश्रुत के विशिष्ट गुणों का वर्णन किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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