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________________ १८२ उत्तराध्ययन सूत्र - ग्यारहवां अध्ययन ★★★★★★★★★★ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ वृत्ति वाला, गति, स्थान, भाषा और भाव विषयक चपलता रहित, माया रहित तथा खेलतमाशा आदि में कुतूहल रहित अर्थात् कुतूहल में रुचि न रखने वाला। ... जो किसी का भी तिरस्कार नहीं करता और प्रबन्ध (विकथा नहीं करता या क्रोध को चिर काल तक नहीं रखता, शीघ्र ही शान्त हो जाता है) मित्रता किये जाने पर मित्रता को निभाता है और मित्र का कृतज्ञ रहता है एवं मित्र के प्रति उपकार करता है तथा शास्त्रज्ञान प्राप्त कर अभिमान नहीं करता है। - और जो गुरुओं द्वारा समिति-गुप्ति आदि में भूल हो जाने पर भी उनका तिरस्कार नहीं करता अथवा अपना दोष दूसरों पर नहीं डालता और मित्रों पर कोप नहीं करता है तथा अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई ही कहता है (उसके गुणों की ही प्रशंसा करता है)। ___जो क्लेश और दंगे से बचा रहता है, कुलीन (उठाये हुए भार को सफलता पूर्वक निभाने में समर्थ होता है) तथा लज्जावान् और इन्द्रियों का गोपन करने वाला होता है। ऐसा तत्त्वज्ञ साधु सुविनीत कहा जाता है। विवेचन - उपर्युक्त चार गाथाओं में सूत्रकार ने सुविनीत के पन्द्रह लक्षण बताएं हैं जो इस प्रकार हैं - १. जो नम्र होकर रहता है २. जो चंचल (चपल) नहीं है ३. जो अमायी - निश्छल है ४. जो अकुतूहली है ५. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता है ६. जो क्रोध को लम्बे काल तक टिकाए नहीं रखता है ७. मित्र के प्रति कृतज्ञ रहता है.. शास्त्रज्ञान का मद नहीं करता है ६. जो स्खलना होने पर दूसरों की निन्दा नहीं करता १०. जो मित्रों पर कोप नहीं करता है ११. अप्रिय मित्र का भी एकान्त में गुणानुवाद करता है १२. जो लड़ाई झगड़े से दूर रहता है १३. जो कुलीन होता है १४. जो लज्जाशील होता है १५. जो अंगोपांगों का गोपन करने वाला होता है। शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी वसे गुरुकुले णिच्चं, जोगवं उवहाणवं। पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्भुमरिहइ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - वसे - रहता है, गुरुकुले - गुरुकुल में, जोगवं - योगवान्-समाधिमान् अथवा प्रशस्त मन, वचन और काया के योग-व्यापार से युक्त, उवहाणवं - उपधान तप करने वाला, पियंकरे - प्रिय करने वाला, पियवाई - प्रियभाषी, अरिहइ - योग्य होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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