SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रुमपत्रक - मोक्ष मार्ग कठिन शब्दार्थ जिणे - जिन भगवान्, अज्ज आज, दीस दिखाई देते हैं, बहुम - बहुत से मत, मग्गदेसिए - मार्गदर्शक, संपइ - वर्तमान काल में, णेयाउए न्याय युक्त, पहे - मार्ग में । भावार्थ - - आज वर्तमान समय में निश्चय ही जिनेश्वर देव दिखाई नहीं देते हैं किन्तु उनका बताया हुआ, मोक्ष तक पहुँचाने वाला ज्ञान- दर्शन - चारित्रात्मक मोक्ष मार्ग दिखाई देता है । इस प्रकार विचार कर भविष्य में आत्मार्थी पुरुष जिनमत में संदेह रहित हो कर संयम में स्थिर रहेंगे। फिर इस समय साक्षात् मुझ तीर्थंकर के होते हुए, हे गौतम! न्याय युक्त निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कराने वाले इस मुक्तिमार्ग में एक समय के लिए भी प्रमाद मत कर। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में वर्तमान काल में उपलब्ध न्याय युक्त मार्ग मोक्ष मार्ग में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करने का उपदेश दिया गया है। Jain Education International गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३२ ॥ 'ण हु जिणे अज्ज दीसइ' व्याख्या एवं उसका आशय प्रश्न होता है कि भगवान् महावीर जब प्रत्यक्ष विराजमान थे, तब यह कैसे कहा गया कि 'आज जिन नहीं दिख रहे हैं? इसका समाधान यह है कि सूत्र त्रिकालविषयी होता है, इसलिए यह सूत्र - पंक्ति भावी भव्यों को उपदेश देने के लिए है। इसलिए इस पंक्ति के पूर्व इस वाक्य का अध्याहार करना चाहिए कि "भविष्य में भव्य लोग कहेंगे कि आज जिन नहीं दिख रहे हैं किन्तु जिनोपदिष्ट मार्ग दिखाई दे रहा है, जिन भगवान् ने जो सातिशय श्रुतज्ञान- दर्शन - चारित्रात्मक मुक्तिमार्ग प्रतिपादित (देशित ) किया था वह आज भी मौजूद है। . अवसोहिय कंटगापहं, ओइण्णो सि पहं महालयं । - - - १७३ ****** - For Personal & Private Use Only कठिन शब्दार्थ - अवसोहिय ओइण्णो सि - प्रविष्ट हो गया है, पह गं.- मार्ग को, विसोहिया - शुद्ध करके । भावार्थ - कुतीर्थ रूप कांटों से कंटीले मार्ग को छोड़ (दूर) कर तीर्थंकरादि महापुरुषों द्वारा सेवित विशाल मुक्ति के राजमार्ग में प्रवेश किया है। अब यहीं पर विश्राम न कर । हे गौतम! पूर्ण 'आस्था रख कर इस मुक्ति, मार्ग में बढ़ते जाओ और समय मात्र भी प्रमाद मत कर । विवेचन प्रस्तुत गाथा में भगवान् ने कण्टक युक्त मार्ग का परित्याग करके विशुद्ध राजमार्ग में चलने का उपदेश दिया है। दूर करके, कंटगापहं - कण्टक युक्त मार्ग को, भाव मार्ग में, महालयं - बड़े विस्तार वाले, www.jalnelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy