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नमि प्रव्रज्या - सातवां प्रश्न-यज्ञ ब्राह्मण भोजन आदि के संबंध में १४५ *******************************kakkkkkkkkkkkkkkatatatatatam***
भावार्थ - आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिए, बाहर के युद्ध से तुम्हें क्या लाभ है? केवल अपनी आत्मा द्वारा आत्मा को जीतने से सच्चा सुख प्राप्त होता है।
पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च। दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - पंचिंदियाणि - पांचों इन्द्रियाँ, कोहं - क्रोध, माणं - मान, मायंमाया, तहेव - तथा, लोहं - लोभ, दुजयं - दुर्जय, अप्पे जिए - आत्मा को जीत लेने पर, जियं - जीत लिए जाते हैं।
भावार्थ - पांच इन्द्रियाँ क्रोध, मान, माया और इसी प्रकार लोभ तथा दुर्जय आत्मा ये सब अपनी आत्मा को जीत लेने पर स्वतः जीत लिए जाते हैं। सातवां प्रश्न - यज्ञ ब्राह्मण भोजन आदि के संबंध में
एयमटुं णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ णमि रायरिसिं, देविंदो इणमब्बवी॥३७॥
भावार्थ - नमि राजर्षि के उत्तर देने के बाद. पूर्वोक्त अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमिराजर्षि से यह कहा।
जइत्ता विउले जण्णे, भोइत्ता समणमाहणे। दच्चा भोच्चा य जिट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया॥३८॥
कठिन शब्दार्थ. - जइत्ता - करवा कर, विउले - विपुल, जण्णे - यज्ञ को, भोइत्ताभोजना करा कर, समण - श्रमणों, माहणे - ब्राह्मणों को, दच्चा - दान देकर, भोच्चा - भोग भोग कर, जिट्ठा - स्वयं यज्ञ करके।
भावार्थ - हे क्षत्रिय! बड़े बड़े महायज्ञ करवा कर, श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन करा कर, दान देकर और भोग भोग कर तथा स्वयं यज्ञ करके उसके बाद हे क्षत्रिय! दीक्षा धारण करना तुम्हें योग्य है।
नमि राजर्षि का उत्तर ' एयमढे णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ।
तओ णमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी॥३६॥
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