SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कापिलीय - दुर्गति निवारण का उपाय ११६ kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk दुर्गति निवारण का उपाय अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए। किं णाम होज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गई ण गच्छेजा॥१॥ कठिन शब्दार्थ - अधुवे - अध्रुव, असासयम्मि - अशाश्वत, संसारम्मि - संसार में, दुक्खपउराए - दुःख प्रचुर, किं णाम - कौनसा, कम्मयं - कर्म, जेण - जिससे, अहं - मैं, दुग्गइं - दुर्गति में, ण गच्छेज्जा - नहीं जाऊँ। ___भावार्थ - एक जिज्ञासु ने पूछा कि भगवन्! अध्रुव (अस्थिर), अशाश्वत और प्रचुर दुःख वाले, इस संसार में कौनसा वह कर्म है, जिससे कि मैं दुर्गति में न जाऊँ। विजहित्तु पुव्व संजोगं, ण सिणेहं कहिंचि कुविजा। असिणेह सिणेह करेहि, दोस पओसेहिं मुच्चए भिक्खू॥२॥ कठिन शब्दार्थ - विजहित्तु - त्याग कर, पुव्व संजोगं - पूर्व संयोग को, सिणेहं - स्नेह, ण कुग्विजा - न करे, असिणेह - अस्नेह, दोस पओसेहिं - दोष प्रदोषों से, मुच्चए- मुक्त हो जाता है। ___ भावार्थ - माता-पिता आदि पूर्व संयोग को और सासू श्वसुर आदि पश्चात् संयोग को छोड़ कर किसी भी वस्तु में स्नेह नहीं करे। स्नेह करने वाले पुत्र-स्त्री आदि में भी स्नेह न रखता हुआ ‘साधु, निरतिचार चारित्र वाला होकर दोष - शारीरिक और मानसिक संताप आदि और प्रदोष - दुर्गति गमन आदि से छट जाता है। ... विवेचन - कपिल केवली ने पांच सौ चोरों को उपदेश देते हुए दुर्गति निवारण का उपाय बताते हुए कहा कि - यह संसार अध्रुव, अंशाश्वत और दुःखमय है। इस संसार में जितने भी कष्ट उत्पन्न होते हैं उन सब का मूल कारण स्नेह है। अतः स्नेह रहित जो कर्मानुष्ठान है, वही दुर्गति से इस जीव को बचाने वाला है। .. तो णाण दंसण समग्गो, हिय णिस्सेसाए सव्वजीवाणं। तेसिं विमोक्खणट्ठाए, भासइ मुणिवरो विगयमोहो॥३॥ - कठिन शब्दार्थ - णाण-दसण-समग्गो - ज्ञान दर्शन संयुक्त (परिपूर्ण), हिय - हित, णिस्सेसाए - निःश्रेयस मोक्ष के लिए, सव्वजीवाणं - सभी जीवों के लिए, विमोक्खणडाएमोक्ष के लिए भासइ - कहते हैं, विगयमोहो - मोह से रहित। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy