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औरभ्रीय - देवत्व प्राप्त व्यक्ति की योग्यता ... . ११३ xkakakakakakakakkkkkkkkkkkkxxxxxxxxxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk अथवा जिनके कर्म अवश्य ही फल देने वाले होते हैं वे कर्म सत्य कहलाते हैं ५. अथवा कर्मसक्त - संसारी जीव कर्मों में अर्थात् मनुष्य गति योग्य क्रियाओं में सक्त-आसक्त हैं अतएव वे कर्मसक्त हैं।
देवत्व प्राप्त व्यक्ति की योग्यता जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अइच्छिया। सीलवंता सविसेसा, अदीणा जंति देवयं ॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - जेसिं - जिनकी, विउला - विपुल, सिक्खा - शिक्षाएं, अइच्छियाअतिक्रमण करके, सीलवंता - शीलवान्, सविसेसा - उत्तरोत्तर गुणों से युक्त अदीणा - अदीन - दीनता रहित।
भावार्थ - जिन के, विपुल ग्रहण शिक्षा और आसेवन रूप शिक्षा होती है, सदाचारी उत्तरोत्तर गुण प्राप्त करने वाले, वे पुरुष मूलपूंजी अर्थात् मनुष्य-भव का अतिक्रमण करके दीनता रहित होकर देवगति को प्राप्त करते हैं। - विवेचन - 'विउला सिक्खा' - विपुल शिक्षा। यहाँ शिक्षा का अर्थ ग्रहण रूप और आसेवन रूप शिक्षा-अभ्यास से है। ग्रहण का अर्थ है - शास्त्रीय सिद्धान्तों का अध्ययन करना-जानना और आसेवन का अर्थ है - ज्ञात आचार-विचारों को क्रियान्वित करना। इन्हें सैद्धान्तिक प्रशिक्षण और प्रायोगिक कह सकते हैं। सैद्धान्तिक ज्ञान के बिना आसेवन सम्यक् नहीं होता और आसेवन के बिना सैद्धान्तिक ज्ञान सफल नहीं होता। इसलिए ग्रहण और आसेवन दोनों शिक्षा को पूर्ण बनाते हैं।
'सीलवंता' - शीलवान् के अपेक्षा से तीन अर्थ होते हैं - १. अविरति सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से सदाचारी २. विरताविरत की अपेक्षा से अणुव्रती और ३. सर्वविरत की अपेक्षा से महाव्रती।
एवमहीणवं भिक्खू, अगारिं च वियाणिया। .. कहण्णु जिच्चमेलिक्खं, जिच्चमाणो ण संविदे॥२२॥
कठिन शब्दार्थ - अद्दीणवं - दैन्य रहित, अगाkि - गृहस्थ को, वियाणिया - जान कर, कहण्णु - कैसे, जिच्चं - हार जाता है, एलिक्खं - देवगति रूप लाभ, जिच्चमाणो - हारता हुआ, ण संविदे - नहीं जानता है।
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