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________________ ११० उत्तराध्ययन सूत्र - सातवां अध्ययन . kakkarutakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk ___ कठिन शब्दार्थ - हारित्ता - गंवा कर, ववहारे - व्यवहार में, उवमा - उपमा, एसायह, धम्मे - धर्म में, वियाणह - जानो। भावार्थ - उनमें से एक तीसरा वणिक मूल पूंजी भी खो कर आया। यह उपमा व्यवहार में है, इसी प्रकार धर्म में भी जानो। माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं, णरगतिरिक्खत्तणं धुवं॥ १६॥ कठिन शब्दार्थ - माणुसत्तं - मनुष्य पर्याय, देवगई - देवगति, मूलच्छेएण - मूल पूंजी का नष्ट होना, जीवाणं - जीवों को, णरगतिरिक्खत्तणं - नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होना, धुवं - निश्चय ही। भावार्थ - मनुष्य भव मूल पूंजी के समान है, देवगति लाभ के समान है। मूलपूंजी के नाश हो जाने से अर्थात् मनुष्य भव की हानि होने से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति की प्राप्ति होती है। . विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं में तीन वणिक पुत्रों का दृष्टान्त संक्षेप में दिया गया है। इस दृष्टान्त के द्वारा मनुष्यत्व को मूल धन, देवत्व को लाभ और मनुष्यत्व रूप मूल धन खोने से नरक तिर्यंच गति रूप हानि का संकेत किया गया है। दृष्टान्त - पिता के आदेश से तीन वणिक पुत्र व्यवसायार्थ विदेश गये। उनमें से एक पुत्र बहुत धन कमा कर लौटा। दूसरा पुत्र मूल पूंजी लेकर लौटा और तीसरा पुत्र जो पूंजी ले कर गया था, उसे भी खो आया। ___मनुष्य भव में सज्जन के समान प्रणधारी होना मनुष्य गति रूप मूल धन की सुरक्षा है। व्रतधारी होकर देवगति पाना अतिरिक्त लाभ है। अज्ञानी - अव्रती रहना मूल धन को खोकर नरक तिर्यंच गति पाना है। जैसे मूल पूंजी हो तो उससे व्यापार करने से उत्तरोत्तर लाभ में वृद्धि की जा सकती है उसी प्रकार मनुष्य गति रूप मूल पूंजी हो तो उसके द्वारा पुरुषार्थ करने पर उत्तरोत्तर स्वर्गअपवर्ग रूप लाभ की प्राप्ति की जा सकती है। दुहओ गई बालस्स, आवइ वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च, जं जिए लोलया सढे॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - दुहओ - दो प्रकार की, गई - गति, बालस्स - बाल जीव की, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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