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________________ एलयं णामं सत्तमं अज्झयणं औरशीय नामक सातवां अध्ययन उत्थानिका - छठे अध्ययन में संक्षेप से निर्ग्रन्थ का स्वरूप वर्णन किया गया है। साधक जीवन का मूल लक्ष्य क्षणिक इन्द्रिय सुखों से विरक्त होकर आत्मरमण करते हुए मोक्ष सुखों को प्राप्त करना है। साधक इन सुखों के प्रलोभन में फंस कर अपने मूल लक्ष्य को न भूलें, इसे समझाने के लिए औरभ्रीय नामक इस सातवें अध्ययन में पांच दृष्टान्त दिये हैं। उनमें प्रथम एलक-बकरे का दृष्टान्त इस प्रकार हैं - १. एलक दृष्टान्त जहाऽएसं समुहिस्स, कोइ पोसेज एलयं। ओयणं जवसं देजा. पोसेज्जा वि सयंगणे॥१॥ कठिन शब्दार्थ - जहा - जिस प्रकार, आएसं - अतिथि - मेहमान को, समुद्दिस्स - उद्देश्य कर, पोसेज - पालन (पोषण) करता है, एलयं - एलक (मेमने-बकरे) का, ओयणंओदन (चावल), जवसं - जौ, देजा - देता है, पोसेजा - पोषण करे, सयंगणे - अपने आंगन में। भावार्थ - जिस प्रकार अतिथि-पाहुने को उद्देश्य कर कोई व्यक्ति बकरे अथवा भेड़ का पालन करता है और उसे खाने के लिए भात और जौ देता है तथा अपने ही आँगन में उसे पुष्ट बनाता है। विवेचन - विषय भोगों के कटु परिणामों का दिग्दर्शन कराने के लिए सूत्रकार एलक का उदाहरण देते हैं। यहाँ गाथा में 'पोषण' का दो बार उल्लेख आया है जिसका तात्पर्य है - विशेष रूप से पोषण करना। सयंगणे - घर के आंगन में कहने का आशय - दृष्टि के सामने रखना और बहुत सावधानी से पालन पोषण करना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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