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उत्तराध्ययन सूत्र - छठा अध्ययन kartikakkakakakakakakakakakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
शरीरासक्ति, दुःख का कारण जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा काय-वक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - सत्ता - आसक्त, वण्णे - वर्ण, रूवे - रूप, कायवक्केणं - काया और वचन से, दुक्खसंभवा - दुःखों के भाजन।
भावार्थ - जो कोई अज्ञानी जीव शरीर में गौर आदि वर्ण में और सुन्दर रूप में सब प्रकार से मन, काया और वचन से आसक्त हैं, वे सभी दुःख के भागी हैं, अर्थात् दुःख भोगने वाले हैं। ..
- विवेचन - जो देहाध्यासी जीव हैं वे जितने भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं उन सब के भाजन बनते हैं। अतः मुमुक्षु को देहाध्यास की उपेक्षा कर देनी चाहिये।
अप्रमत्तता का उपदेश आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारम्मि अणंतए। तम्हा सव्वदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिव्वए॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - आवण्णा - प्राप्त हुआ, दीहं - दीर्घ, अद्धाणं - मार्ग को, संसारम्मि - संसार में, अणंतए - अनन्त, सव्वदिसं - सर्व दिशाओं को, पस्स - देख कर, अप्पमत्तो - अप्रमत्त, परिव्वए - विचरे।
भावार्थ - अज्ञानी जीव अनन्त संसार में दीर्घ-अनादि-अनन्त जन्म-मरण रूप मार्ग को प्राप्त हुए हैं, इसलिए मुमुक्षु सभी पृथ्वी, पानी आदि अठारह भाव दिशाओं को देखता हुआ उनकी विराधना न हो, इस प्रकार प्रमाद रहित होकर विचरे॥१३॥ .
_ विवेचन - प्रमादी जीव दिशाओं-विदिशाओं में निरन्तर भ्रमण करता है। अतः विवेकी पुरुष अप्रमत्त हो कर संयम में विचरण करे। शास्त्रकार फरमाते हैं कि -
“सव्वओ पमत्तस्स भयं सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं" जो प्रमादी पुरुष है उसी को भय है और जो प्रमाद से रहित है उसको किसी प्रकार का भय नहीं है।
बहिया उमायाय, णावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे॥१४॥
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