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________________ क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय - अज्ञान, दुःख का कारण समिक्ख पंडिए तम्हा, पास जाइपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसिज्जा, मित्तिं भूएहिं कप्पए ॥ २ ॥ स्वयं, कठिन शब्दार्थ - समिक्ख समीक्षा (विचार) कर, पंडिए - पण्डित, तम्हा इसलिए, पास सच्चं सत्य का, एसिज्जा पाश, जाइप जाति पथों की, अन्वेषण करे, मित्तिं बहू - अनेक विध, अप्पणा मैत्री, (भूएसु) भूएहिं - सर्व जीवों के प्रति, 1 - - - कप्पए आचरण करे । भावार्थ - इसलिए हिताहित का विवेकी पंडित पुरुष बहुत-से पाश अर्थात् आत्मा को परवश बनाने वाले स्त्री आदि सम्बन्ध एकेन्द्रियादि जाति के कारण हैं ऐसा विचार कर आत्मा सत्य अर्थात् सदागम या संयमी की खोज करे और सभी प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखे। Jain Education International * पाठान्तर - - विवेचन - पंडित पुरुष सांसारिक संबंधों को पाश रूप जान कर और उसके फलस्वरूप एकेन्द्रिय आदि मार्ग को समझ कर आत्मा के लिए सत्य की गवेषणा में प्रवृत होता हुआ संसार के समस्त छोटे बड़े प्राणियों से मैत्री का व्यवहार करे । माया पिया हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा । णालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - माया - माता, पिया - पिता, हुसा भज्जा स्त्री भार्या पुत्र, ओरसा - औरस, णालं पुत्रवधू, भाया समर्थ नहीं है, मम पुत्ता ताणाए रक्षण के लिए, लुप्पंतस्स - दुःख पाते हुए को, सकम्मुणा- अपने कर्मों से । भावार्थ - विवेक पुरुष को ऐसा विचार करना चाहिए कि स्वकृत कर्मों से दुःखी होते हुए मेरी रक्षा करने के लिए माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, स्त्री और औरस अर्थात् अपने अंग से उत्पन्न हुए पुत्र कोई भी समर्थ नहीं हैं अर्थात् कोई भी दुःखों से नहीं छुड़ा सकते हैं। विवेचन इस गाथा में स्पष्ट किया गया है कि परलोक में इस जीव का माता पिता आदि कोई भी संबंधी रक्षक नहीं हो सकता क्योंकि जो कर्म जिस आत्मा ने किए हैं उनका फल भी वही आत्मा भोगता है, दूसरा नहीं । अतः संबंधीजनों से किसी प्रकार का मोह नहीं रखना चाहिये और यदि कुछ है भी तो उसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । भूएसु - ६३ **** For Personal & Private Use Only भ्राता, मेरे, - www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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