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असंस्कृत - सद्गुणों की आकांक्षा *aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa***************★★★★★★★★★★★★★★★ पिंजदोसाणुगया - प्रेम - राग द्वेष के अनुगत, परज्झा - परवश (पराधीन), अहम्मे - अधर्म के, दुगुंछमाणो - जुगुप्सा करता हुआ, कंखे - इच्छा करे, गुणे - गुणों की, जाव - जब तक, सरीरभेए - शरीर का भेद हो (शरीर छूटे)।
भावार्थ - जो संस्कृत यानी बाहरी दिखावे वाले, किन्तु अन्तःकरण की शुद्धि से रहित निस्सार वचन बोलने वाले, अन्यतीर्थियों के शास्त्रों की प्ररूपणा करने वाले वादी हैं वे राग-द्वेष से युक्त हैं, इस कारण पराधीन हैं। ये लोग अधर्म के हेतु हैं इस प्रकार जान कर उनकी जुगुप्सा करता हुआ मुमुक्षु जब तक शरीर का नाश न हो तब तक जीवन पर्यन्त सम्यग्दर्शनादि गुणों की इच्छा करे। ऐसा मैं कहता हूँ। ... विवेचन - प्रस्तुत गाथा में अन्यमतावम्बियों के बाह्य आडम्बर के परित्याग की एवं शरीर का भेद नहीं होने तक ज्ञानादि गुणों की इच्छा करने की शिक्षा दी गयी है।
|| इति असंस्कृत नामक चौथा अध्ययन समाप्त॥
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