SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र - चौथा अध्ययन kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk वाला मुनि स्वच्छन्दता का त्याग करने से मोक्ष प्राप्त करता है। अतएव गुरु की आज्ञा में रहता हुआ साधु पूर्व वर्ष तक प्रमाद रहित हो कर विचरण करे। इस प्रकार करने से साधु शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में मोक्ष के उपाय का वर्णन किया है। इच्छाओं का निरोध और गुरुजनों की भक्ति, ये मोक्षपुरी के दो मुख्य मार्ग हैं, जिन पर चलने वाला शीघ्र ही मोक्ष को पा लेता है। गुरु आज्ञा के प्रतिकूल चलने वाला स्वेच्छाचारी शिष्य संयम मार्ग से भ्रष्ट हो कर संसार चक्र में ही भ्रमण करता रहता है अतः आगमकार ने अप्रमत्त रह कर संयम का आचरण करने का उपदेश दिया है। शाश्वतवादियों का कथन एवं अन्य से तुलना स पुव्वमेवं ण लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं। विसीयइ सिढिले आउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भेए॥६॥ .. कठिन शब्दार्थ - पुत्वमेवं - पहले के समान, ण लभेज - प्राप्त न होवे, एसोवमायह उपमा, सासय - शाश्वत, वाइयाणं - वादियों की है, विसीयइ - खेद पाता है, सिढिले - शिथिल, आउयम्मि - आयु के होने पर, कालोवणीए - काल के समीप आने पर, सरीरस्स - शरीर के, भेए - भेद होने पर। - भावार्थ - जो व्यक्ति पहले से ही अप्रमत्त हो कर ऊपर कहे अनुसार धर्माचरण नहीं करता और पिछली अवस्था के लिए छोड़ देता है, वह पहले के समान, बाद में भी धर्माचरण न कर सकेगा। शाश्वतवादी (निश्चयवादी) निरुपक्रम आयु वालों का 'बाद में धर्म का आचरण कर लेंगे', यह विचारना ठीक भी हो सकता है, किन्तु जल के बुलबुले के समान आयु वालों का यह विचारना ठीक नहीं है, ऐसा व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर तथा मृत्यु काल निकट आने पर एवं शरीर के नाश होने के अवसर पर खेद करता है। विवेचन - आयु के परिमाण को जानने वाले निरुपक्रम आयु वाले लोग यदि कहें कि 'हम पीछे धर्माचरण कर लेंगे' तो उनका कहना ठीक भी हो सकता है, किन्तु जिनकी आयु का कोई निश्चय नहीं है, न जाने कब टूट जाय, वे यदि बाद में धर्माचरण की बात कहें, तो वे पहले भी न करेंगे और पीछे भी न कर पायेंगे। अन्त में आयु समाप्त होने के समय मौत के निकट आने पर हाथ मलने के सिवाय उनका कोई चारा न होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy