________________
द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी : सुषमा काल
६६
अगुरुलघु, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, पर्याय - इन सबकी अनंतगुण परिहानक्रमशः ह्रास होता जाता है।
हे भगवन्! जम्बूद्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषमा संज्ञक आरक के अन्तर्गत उत्कृष्टता के पराकाष्ठा प्राप्त काल में भरत क्षेत्र का आकार-प्रकार किस प्रकार का होता है?
हे गौतम! उसका भूमिभाग अत्यंत समतल एवं रमणीय होता है। ढोलक के चमड़े से मढे हुए ऊपरी भाग के सदृश वह समतल होता है। सुषम-सुषमा का जिस प्रकार वर्णन किया गया है, यहाँ वैसा ही ज्ञातव्य है, उससे इतना अन्तर है - सुषम-सुषमा काल के मनुष्य चार सहस्र धनुष होते हैं। उनके पसलियों की संख्या एक सौ अट्ठाईस होती है। दो दिन व्यतीत होने पर इन्हें भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक पुत्र-पुत्रियों का चौसठ दिन-पर्यन्त लालनपालन करते हैं। उनका आयुष्य दो पल्योपम का होता है। अवशिष्ट वर्णन सुषम-सुषमा जैसा ही है। इस आरक में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं -
१. एका - परमोत्कृष्ट २. प्रचुरजंघ - परिपुष्ट जंघा युक्त ३. कुसुम - पुष्प सदृश सुकोमल ४. सुष्टुमना - प्रशान्तचेता।
तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं. जाव अणंतगुण-परिहाणीए परिहायमाणे परिहायमाणे, एत्थ णं सुसमदुस्समा णामं समा पडिवज्जिंसु। समणाउसो! सा णं समां तिहा विभज्जइपढमे तिभाए १, मज्झिमे तिभाए २, पच्छिमे तिभाए ३।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे, इमीसे ओसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समाए पढममज्झिमेसु तिभाएसु भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे? पुच्छा।
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, सो चेव गमो णेयव्वो णाणत्तं दो धणुसहस्साई उहं उच्चत्तेणं। तेसिं च मणुआणं चउसटिपिट्ठकरंडगा, चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, ठिई पलिओवम, एगूणासीइं राइंदियाई सारक्खंति, संगोवेंति जाव देवलोगपरिग्गहिया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org