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________________ द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा अष्टापद-धूतपट्ट, सुप्रतिष्ठक, मयूर, लक्ष्मी, अभिषेक, तोरण, पृथ्वी, समुद्र, उत्तम भवन, पर्वत, श्रेष्ठ दर्पण, लीलोत्सुक हाथी, बैल, सिंह तथा चंवर - इन उत्तम, श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों को धारण करती थीं। उनकी चाल हंस के समान थी। उनका स्वर कोयल की मधुर वाणी के समान था। वे कांतिमय थीं, सबके द्वारा स्पृहणीय थीं। न उनके शरीर में कभी झुर्रियाँ ही पड़ती थीं, न उनके बाल कभी सफेद ही होते थे। उनके अंगोपांगों में कोई विकार, न्यूनता या अधिकता (न्यूनाधिक्य) नहीं होती थी तथा उनके शरीर का वर्ण किसी भी प्रकार से विकृत या दूषित नहीं था। वे वैधव्य, दारिद्र्य आदि दुःखों से रहित थीं। उनकी ऊँचाई पुरुषों से कुछ कम होती थी। उनका वेश स्वाभाविक रूप में तथा सुंदर था। वे उचित गति, हंसी, बोली, चेष्टा, विलास तथा आलाप-संलाप में निष्णात तथा व्यवहार निपुण थी। उनके कुच, जघन, मुख, हस्त, चरण, नयन सुंदर होते थे। वे लावण्य, सुंदर वर्ण, रूप यौवन एवं विलास-नारीवृंदोचित उल्लासमय, नयन चेष्टा युक्त हाव-भाव से युक्त थीं। वे नंदनवन में विहरणशील अप्सराओं के सदृश भारतवर्ष में नारियों के रूप में मानों अप्सराएँ ही थीं। उन्हें देखकर उनका सौन्दर्य आदि निहार कर दर्शकों को बड़ा आश्चर्य होता था। इस प्रकार चित्त को प्रसन्न करने वाली यावत् प्रतिरूप थीं। इस प्रकार भरतक्षेत्र के मनुष्य ओघस्वर-गांभीर्य एवं लययुक्त, स्वरान्वित, हंस की ज्यों मधुर, क्रॉच की ज्यों दूर देशगामी, नंदी-बारह प्रकार के वाद्यों के सम्मिलित नाद के सदृश स्वर एवं घोष (गर्जन) युक्त, सिंह जैसे स्वर एवं गर्जना युक्त, उत्तम स्वर एवं घोष युक्त थे। उनके अंग-अंग प्रभा से उद्योतमय थे। वे वज्रऋषभनाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थान संस्थितसर्वोत्तम दैहिक आकार युक्त थे। उनकी त्वचा में किसी भी प्रकार के रोग, घाव नहीं थे। वे देह के अन्तवर्ती पवन-अपान वायु (अधोवायु) के उचित वेग से युक्त थे। वे कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचन शक्ति युक्त थे। उनके अपान स्थान पक्षी की ज्यों मललेप रहित थे। उनकी देह के पृष्ठ भाग, पार्श्व भाग तथा उरू स्थल सुदृढ थे। वे ऊँचाई में छह सहस्र धनुष थे। आयुष्मन् श्रमण गौतम! उन मनुष्यों की पसलियों में दो सौ छप्पन अस्थियाँ होती थीं। उनके श्वास की सौरभ पद्म एवं उत्पल या पद्म तथा कुष्ठ नामक गंध द्रव्यों जैसी होती थी, जिससे उनके मुँह सदा सुरभिमय रहते थे। प्रकृति से ही वे मनुष्य शांत थे। उनके व्यवहार में क्रोध, मान, माया, लोभ-कषाय चतुष्ट्य की मात्रा अतिमंद थी। उनका जीवन मृदुतापूर्ण था। वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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