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प्रथम वक्षस्कार - उत्तरार्द्ध भरत स्वरूप
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दाहिणड्डभरहं च उत्तरडभरहं च। वेअडगिरिकुमारे य इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-वेयड्ढे पव्वए २।
अदुत्तरं च णं गोयमा! वेअड्डस्स पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ ण अत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च, भवइ य, भविस्सइ य, धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे।
शब्दार्थ - अदुत्तरं - इसके अतिरिक्त। भावार्थ - हे भगवन्! वैताढ्य पर्वत का ऐसा नाम किस कारण है?
हे गौतम! वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्द्ध भरत एवं उत्तरार्द्ध भरत - दो भागों में बांटत्ता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्य गिरिकुमार नामक देव निवास करता है, जो महान् वैभवशाली यावत् एक पल्योपम काल परिमित स्थिति युक्त है। इस कारण से वह पर्वत वैताढ्य कहा जाता है। .. हे गौतम! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वतता का प्रतीक है। वह कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान में है, भविष्यत् में होगा तथा ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है।
उत्तरार्द्ध भरत स्वरूप
(२२) . कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरडभरहे णामं वासे पण्णत्ते?
गोयमा! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, वेअड्डस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरडभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलियंकसंठाणसंठिए, दुहा लवणसमुहं पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुढे, गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपविभत्ते, दोण्णि अट्टतीसे जोयणसए तिण्णि य एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं।
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