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रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव
चमकती हुई, सहस्त्रों किरणों से उद्दीप्त हजारों चित्रों से अंकित, देदीप्यमान, नेत्रप्रिय, सुखद स्पर्श युक्त, सुखमय कांत, दर्शनीय, कलामय, कौशलपूर्वक निर्मित, मणिरत्न मयी, घंटिकाओं से व्याप्त, एक हजार योजन विस्तृत, पांच सौ योजन ऊंचे, शीघ्र, त्वरित, वेग युक्त, दिव्य यान - विमान की विकुर्वणा करो एवं ऐसा कर मुझे सूचित करो ।
विवेचन
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पचम वक्षस्कार
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यहाँ आया 'हरिनिगमेषी' शब्द विशेष रूप से विवेचनीय है। संस्कृति में हरि शब्द के अनेक अर्थ है । उनमें एक अर्थ इन्द्र भी है । यहाँ वही अर्थ गृहीत हुआ है। आचार्य शांतिचन्द्र ने इसी सूत्र की वृत्ति में हरिनिगमैषी के व्युत्पत्तिपरक अर्थ का उल्लेख करते हुए लिखा हैं - हरे - इन्द्रस्य, निगमम् - आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी-तम् हरिनिगमेषी,
अथवा
इन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवः - हरिनिगमेषी ।
इसका तात्पर्य यह है, जो इन्द्र की आज्ञा का पालन करने की इच्छा लिए रहता है, वह
इस संज्ञा द्वारा अभिहित हुआ है अथवा इन्द्र का नैगमेषी नामक देव ।
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(१४६)
तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ जाव वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणित्ता तहेव करेइ इति, तस्स णं दिव्वस्स विमाणस तदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ, तेसि णं • पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा वण्णओ जाव पडिरूवा ।
तस्स णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे०, से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीज़गसहस्सवियए
आवडपच्चावडसेढिप्प-सेढिसुत्थियसोवत्थियवद्धमाणपूसमाणव मच्छंडगमगरंडग-जारमार-फुल्लावलि - पउमपत्त- सागर - तरंग - वसंतलय - पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए, तेसि णं मणीणं वण्णे गंधे फासे य भाणियव्वे जहा रायप्पसेइज्जे ।
तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झ - देसभाए पेच्छाघरमण्डवे अणेगखम्भसयसणिविट्ठे वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव
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