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________________ चतुर्थ वक्षस्कार - यमक संज्ञक पर्वत द्वय २६१ उववाओ संकप्पो अभिसेयविहूसणा य ववसाओ। अच्चणिअ सुहम्मगमो जहा य परिवारणा इड्डी॥१॥ जावइयंमि पमाणंमि हंति जमगाओ णीलवंताओ। तावइयमंतरं खलु जमगदहाणं दहाणं च॥२॥ शब्दार्थ - चरिमंताओ - अंतिम कोण, पायार - प्राकार-परकोटा, तओ - तीन, मणोगुलिया - आराम पूर्वक बैठने की आसनिका, सकहाओ - अस्थियाँ, पहरणकोसा - प्रहरणकोश-शस्त्रागार, हरओ - घर। भावार्थ - हे भगवन्! उत्तर कुरु के अंतर्गत यमक संज्ञक दो पर्वत कहाँ कहे गए हैं? हे गौतम! नीलवान वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा के अंतिम कोण से ८३४ = योजन के अन्तर पर, शीतोदा नदी के पूर्वी एवं पश्चिमी तट पर यमक नामक दो पर्वत कहे गए हैं। वे एक हजार योजन ऊंचे, २५० योजन पृथ्वी में गहरे, मूल में एक हजार योजन, मध्य में ७५० योजन तथा ऊपर ५०० योजन आयाम-विस्तार युक्त हैं। उनकी परिधि मूल में ३१६२ योजन से कुछ अधिक, मध्य में २३७२ योजन से कुछ अधिक तथा ऊपर १५८१ योजन से कुछ अधिक है। वे मूल में चौड़े, बीच में संकरे तथा ऊपर पतले हैं। वे यमक संस्थान संस्थित, सहोत्पन्न दो भाइयों के आकार के समान हैं। वे सम्पूर्णतः स्वर्णमय, उज्ज्वल, साफ तथा सुकोमल है। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवर वेदिका तथा एक-एक वनखंड द्वारा परिवेष्टित है। वे पद्मवर वेदिकाएं ऊँचाई में दो-दो कोस तथा चौड़ाई में पांच-पांच सौ धनुष परिमित हैं। उन पद्मवर वेदिकाओं एवं वनखंडों का वर्णन पूर्वानुरूप ग्राह्य है। उन यमक संज्ञक पर्वतों पर अत्यधिक समतल एवं सुंदर भूमिभाग है। उसके ठीक मध्य में दो उत्तम प्रामाद हैं। वे ऊँचाई में. ६२- योजन है। ३१ योजन एक कोस आयाम-विस्तार युक्त हैं यावत् सपरिवार-स्वसंबद्ध सामग्री सहित सिंहासन के वर्णन पर्यंत प्रासादों का वर्णन पूर्वानुरूप योजनीय है। यमक देवों के सोलह हजार आत्म रक्षक देव हैं, जिनके सोलह हजार श्रेष्ठ सिंहासन प्रतिपादित हुए हैं। हे भगवन्! वे पर्वत यमक शब्द द्वारा क्यों पुकारे जाते हैं? हे गौतम! उन पर्वतों पर यत्र-तत्र अनेक छोटी-छोटी वापियां यावत् बिल पंक्तियाँ-गुहाएं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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