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________________ चतुर्थ वक्षस्कार - शब्दापाती वृत वैताढ्य पर्वत २३६ भावार्थ - महाहिमवान् पर्वत के बिल्कुल मध्य में एक महापद्यद्रह संज्ञक द्रह बतलाया गया है। इसकी लम्बाई दो हजार योजन, चौड़ाई एक हजार योजन तथा गहराई दस योजन है। यह स्वच्छ एवं रजतमय किनारों से युक्त है। इसकी लम्बाई एवं चौड़ाई के अलावा शेष वर्णन पद्मद्रह के समान वक्तव्य है, वहाँ से योजनीय है। इसके मध्य स्थित पद्म का प्रमाण दो योजन है यावत् महापद्यद्रह का एतद्विषयक सारा वर्णन, आभा आदि पद्मद्रह के समान ही है। यहाँ ह्री नामक देवी निवास करती है, जिसका आयुष्य एक पल्योपम है। ___ हे गौतम! इसी कारण यह महापद्मद्रह-इस नाम से पुकारा जाता है। इसके अलावा हे गौतम! महापद्मद्रह संज्ञक यह नाम शाश्वत बतलाया गया है, जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य - तीनों में नष्ट न होने वाला है। . . महापद्मद्रह के दक्षिणी तोरण से निकलती हुई रोहिता महानदी दक्षिणाभिमुखी होती हुई १६०५. योजन बहती है। भरे हुए घड़े के मुख से निकलता हुआ जल जिस प्रकार शब्द करता है, उसी प्रकार यह तीव्र वेग पूर्वक शब्द करती हुई मुक्ता निर्मित हार के समान प्रताप में गिरती है। पर्वत शिखर से प्रपात तक इसका प्रवाह दो सौ योजन से कुछ अधिक होता है। रोहिता महानदी प्रपात में जहाँ गिरती है वहाँ एक विशाल जिह्निका-प्रणालिका कही गई है। यह एक योजन लम्बी, १२- योजन चौड़ी एवं एक कोस मोटी है। यह मगरमच्छ के खुले हुए मुख के समान संस्थान युक्त है, सर्वरत्नमय एवं उज्वल है। रोहिता महानदी जिस स्थान पर गिरती है, वहाँ एक विशाल 'रोहितप्रपात कुण्ड' नामक कुण्ड बतलाया गया है। इसकी लम्बाई एवं चौड़ाई १२० योजन है। इसकी परिधि तीन सौ अस्सी योजन से कुछ कम बतलाई गई है। इसकी गहराई दश योजन है तथा यह स्वच्छ एवं . चिकना है, जैसा कि पूर्व में वर्णित हुआ है। इसका तल-पैंदा वज्ररत्नमय है, गोलाकार है। इसका तीर-तट समतल है यावत् तोरण पर्यन्त वर्णन यहाँ पूर्ववत् ग्राह्य है। इस रोहित प्रपात कुण्ड के बिल्कुल मध्यभाग में एक रोहितद्वीप संज्ञक विशाल द्वीप बतलाया गया है। इसकी लम्बाई १६ योजन एवं परिधि ५० योजन से कुछ अधिक है। यह जल से दो कोस ऊँचा उठा हुआ है, सर्वरत्नमय एवं स्वच्छ है। यह एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। इस रोहितद्वीप पर बहुत समतल एवं मनोरम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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