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________________ २३० जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र - - -- - - - -- - - - - - - - -- - - - - - - -- ऊर्वीकृत पूंछ जैसा है। वह सर्वरत्नमय एवं उज्ज्वल है। वह पद्मवर वेदिका तथा वनखंड से चारों ओर से घिरा हुआ है। सिद्धायतन कूट के ऊपर एक अत्यंत समतल तथा सुंदर भूमिभाग है। उस भूमिभाग के बीचों बीच एक विशाल सिद्धायतन है। वह लम्बाई में पचास योजन, चौड़ाई में पच्चीस योजन तथा ऊँचाई में छत्तीस योजन है यावत् उससे संबद्ध जिन प्रतिमा का वर्णन यहाँ योजनीय है। - हे भगवन्! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् संज्ञक शिखर कहाँ बतलाया गया है? ..हे गौतम! भरतकूट के पूर्व में तथा सिद्धायतन कूट के पश्चिम में चुल्लहिमवान् पर्वत पर यह बतलाया गया है। . यह ऊँचाई, चौड़ाई और परिधि में सिद्धायतन कूट के सदृश है यावत् उस पर अत्यंत सुंदर, रमणीय भूमिभाग है। उसके बीचोंबीच एक सुंदर प्रासाद है जो मानो भवनों का अलंकार हो। यह ऊंचाई में ६२- योजन तथा चौड़ाई में ३१ योजन १ कोस है। वह आकाश में अत्यधिक ऊँचा उठा हुआ, उज्वल आभा युक्त होने से हंसता हुआ सा प्रतीत होता है। उस पर बहुत प्रकार की मणियाँ तथा रत्न जड़ित हैं। अपने पर लगी हुई वायु से फहराती हुई विजय वैजयन्तियों, पताकाओं, छत्रों एवं अतिछत्रों से वह बड़ा ही शोभनीय ,प्रतीत होता है। उसके शिखर इतने ऊँचे हैं मानो वे आकाश को लांघना चाहते हों। उसकी जालियों में लगे हुए अनेकानेक रत्न ऐसे लगते हैं मानो प्रासाद ने अपनी आँखे खोल रखी हों। उस पर निर्मित स्तूपिकाएँ-गुमटियाँ मणि एवं रत्न निर्मित हैं। उस पर खिले हुए शतपत्र, पुंडरीक एवं तिलक के पुष्प, रत्न एवं अर्द्धचन्द्र के चित्र अंकित हैं। अनेक मणियों से बनी हुई मालाओं से वह विभूषित है। उसके अन्तर्भाग और बहिर्भाग में वज्ररत्न एवं तपनीय स्वर्णमय बालुका प्रसृत है। वह सुखप्रद स्पर्शयुक्त, शोभामय एवं आह्लादजनक है यावत् सुंदर रूप लिए हुए है। उस उत्तम प्रासाद के भीतर अत्यंत समतल तथा सुंदर भूमिभाग कहा गया है यावत् अंगोपांग युक्त सिंहासन तक का वर्णन पूर्ववत् योजनीय हैं। हे भगवन्! यह चुल्लहिमवान् कूट-इस नाम से क्यों जाना जाता है? हे गौतम! इस पर चुल्लहिमवान् नामक देव महान् ऋद्धि यावत् वैभव पूर्वक वास करता है, इसलिए यह कूट इस नाम से जाना जाता है।। हे भगवन्! इस चुल्लहिमवान् गिरिकुमार देव की चुल्लहिमवंता नामक राजधानी कहाँ प्रज्ञप्त हुई है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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