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तृतीय वक्षस्कार - खंडप्रपात पर विजय
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विहाडेहि २ त्ता जहा तिमिसगुहाए तहा भाणियव्वं जाव पियं मे भवउ सेसं तहेव जाव भरहो उत्तरिल्लेणं दुवारेणं अईइ ससिव्व मेहंधयारणिवहं तहेव पविसंतो मंडलाइं आलिहइ, तीसे णं खंडगप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए जाव उम्मग्गणिमग्गजलाओ णामं दुवे महाणईओ तहेव णवरं पच्चत्थिमिल्लाओ कडगाओ पवूढाओ समाणीओ पुरत्थिमेणं गंगं महाणई समप्पेंति, सेसं तहेव णवरं पच्चत्थिमिल्लेणं कूलेणं गंगाए संकमवत्तव्वया तहेवत्ति, तए णं खंडगप्पवायगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया २ कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाई ठाणाई पच्चोसक्कित्था, तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसियमग्गे जाव खंडगप्पवाय-गुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णीणेइ ससिव्व मेहंधयारणिवहाओ।
शब्दार्थ - पवूढाओ - निकलती हुई, समप्पेंति - समर्पित हो जाती हैं, मिल जाती हैं।
भावार्थ - गंगादेवी को सिद्ध कर लेने के उपलक्ष में समायोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के समापन पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से प्रतिनिष्क्रांत हुआ यावत् उसने गंगामहानदी के पश्चिमी तट पर दक्षिणी दिशा में विद्यमान खंडप्रपात गुफा की ओर प्रयाण किया। तब राजा भरत ने उसका अनुगमन किया यावत् वह खंडप्रपात गुफा पर पहुंचा।
यहाँ तमिस्राधिपति कृतमालक देव के वर्णन के समान वृत्तांत योजनीय है। अन्तर इतना हैखंडप्रपात गुफा के अधिष्ठायक देव नृतमालक देव ने प्रीतिदान के रूप में राजा भरत को अलंकार पूर्ण पात्र, कड़े आदि भेंट किए। बाकी का वर्णन यावत् अष्टाह्निक महोत्सव आयोजित करने पर्यन्त पूर्ववत् है। - फिर नृतमालक देव को विजित करने के उपलक्ष में आयोजित आठ दिनों के महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया यावत् यहाँ सिंधुदेवी के संदर्भ में आया वर्णन योजनीय है यावत् सेनापति सुषेण ने गंगा महानदी के पूर्व दिग्वर्ती कोण प्रदेश को, जो गंगा महानदी, समुद्र, वैताढ्य पर्वत एवं चुल्लहिमवान पर्वत से मर्यादित, उबड़-खाबड़ निष्कुटों से युक्त था, अधिकृत किया तथा श्रेष्ठ, उत्तम रत्न उपहार के रूप में प्राप्त किए। वैसा कर सेनापति सुषेण गंगा महानदी के निकट आया। निर्मल जल की ऊँची उछलती तरंगों से युक्त गंगा महानदी को नौकारूप में परिणत चर्मरत्न द्वारा सैन्य सहित पुनः पार किया। ऐसा कर जहाँ राजा भरत का सैन्य पड़ाव था वहाँ स्थित बाह्य सभा भवन के समीप आया। आभिषेक्य हस्ति
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