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तृतीय वक्षस्कार - छत्र रत्न द्वारा उपसर्ग से रक्षा
मणुरंजिएल्लियं रायलच्छिचिंधं अजुणसुवण्णपंडुरपच्चत्थुयपट्ठदेसभागं तहेव तवणिजपट्टधम्मतपरिगयं अहियसस्सिरीयं सारयरयणियरविमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवं णरिंदवामप्पमाणपगइवित्थडं कुमुयसंडधवलं रण्णो संचारिमं विमाणं सूरायववायवुट्टिदोसाण य खयकरं तवगुणेहिं लद्धं -
"अहयं बहुगुणदाणं उऊण विवरीयसुहकयच्छायं। ___ छत्तरयणं पहाणं सुदुल्लहं अप्पपुण्णाणं॥१॥"
पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुल्लहतरं वग्धारियमल्लदामकलावं सारयधवलब्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणियलपुण्णइंदो। तए णं से दिव्वे छत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुढे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोयणाई पवित्थरइ साहियाई तिरियं। ___ शब्दार्थ - साहियाई - कुछ अधिक, सलाग - शलाका, अउज्झं - अयोध्य-शत्रु द्वारा अनाक्रमणीय, वत्थिपएसे - वस्ति प्रदेश-छते का मध्य भाग, वित्थडं - विस्तृत, वामप्पमाणदोनों हाथों के घेरे जितना, कुमुद - चंद्र विकासी श्वेत कमल, दुल्लहं - कठिनाई से प्राप्तव्य, अप्पपुण्णाणं - अल्प पुण्य या पुण्यहीन, पमाणराईण - प्रमाणातीत-अत्यधिक प्रमाण युक्त।
भावार्थ - राजा भरत ने अपनी सेना पर मूसल एवं मुट्ठी सदृश मोटी धाराओं से सात दिन-रात पर्यन्त होती हुई वर्षा को देखा तो चर्मरत्न का स्पर्श किया। वह चर्मरत्न श्रीवत्स के समान रूप, आकार युक्त था। इसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र से ग्राह्य है यावत् वह चर्मरत्न बारह योजन से कुछ अधिक-तिरछा फैल गया। तदनंतर राजा भरत अपनी सैन्य छावनी सहित उस चर्मरत्न पर आरूढ़ हो गया। वैसा कर उसने दिव्य छत्र रत्न का संस्पर्श किया। उस छत्र रत्न के निन्यानवें हजार स्वर्णनिर्मित शलाकाएं-ताड़ियाँ लगी थीं, जिनसे वह परिमंडित था। वह बहुमूल्य एवं चक्रवर्ती की गरिमा के अनुरूप था। शत्रुदल का आक्रमण उस पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता था। वह निर्वृण छेद रहित, सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोज्ञ एवं स्वर्णनिर्मित मजबूत दंड से युक्त था। उसका रूप-आकार मुलायम, रजत निर्मित, गोल, कमल कर्णिका-कमलगट्टे (पुष्पासन) के समान था। उसका मध्य भाग (वस्ति प्रदेश) छत्र तानने की जगह पिंजरे जैसी थी तथा उस पर विविध प्रकार के चित्र अंकित थे। मणि, मुक्ता, प्रवाल, परितप्त स्वर्ण एवं रत्नों द्वारा बनाए गए पूर्ण कलश आदि मांगलिक पदार्थों के पांच रंगों के उज्ज्वल आकार उस पर
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