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________________ किया है। ************************** ************ थे। हम दूसरे हैं। सर्व प्रथम संघाड़े में जो मुनि आये, वे दूसरे थे और बीच में (दूसरे संघाड़े में) जो मुनि आये, वे भी दूसरे थे। जो तीसरे संघाड़े में हम आये हैं, सो हम भी दूसरे हैं । अतः हे देवानुप्रिये ! हम तुम्हारे घर बार-बार नहीं आये हैं।' इस प्रकार देवकी देवी से कह कर मुनि जिधर से आये थे, उधर ही चले गये। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देवकी के मन में उठी शंका का मुनि युगल ने समाधान प्रस्तुत शंका अनगारों का समाधान *******************************je - देवकी का प्रश्न तो इतना ही था कि क्या आप दुबारा तिबारा आये हैं, तो गृहस्थ अवस्था, संयमी जीवन व तप का परिचय देने की क्या आवश्यकता थी? समाधान यद्यपि मुनि को अपना परिचय सामान्यतया देना नहीं चाहिये तथा तपश्चर्या आदि का गोपन करना चाहिये परंतु यहां प्रसंग ऐसा आ पड़ा कि संसार का पूर्व परिचय तो देना पड़ा ही, साथ देवकी कहीं ऐसा न समझ ले कि ये पेटू हैं, सिंहकेसरा मोदक के लालच में बार-बार यहां चक्कर लगाते हैं। इस संभावित भ्रम को मिटाने के लिए अनगारों ने कहा हम करोड़पतियों के घराने से निकले हैं, खाने पीने की कोई कमी वहां नहीं थी । दीक्षा लेने के बाद बेले- बेले का तप यह बता रहा है कि खाना-पीना और मौज करना हमारे संयमी जीवन का लक्ष्य नहीं है। वर्ग ३ अध्ययन ८ - - Jain Education International इस वृत्तांत में यथार्थ झलक रहा है, अभिमान नहीं। ऐसा ही एक यथार्थ धर्मघोष स्थविर के शिष्यों द्वारा चम्पानगरी में उस समय बताया गया था, जब नागश्री के द्वारा दिये गये कडुए तुंबे से महातपोधनी धर्मरुचि अनगार की अकाल मृत्यु हुई थी । " मुनियों ने ईर्ष्यावश धर्मरुचिजी की घात कर दी होगी" ऐसा भ्रम न फैले इसलिए संतों ने सार्वजनिक रूप से सूचना की थी। बाकी सामान्यतया तो संत समाचारी यही है कि वे जाति, कुल या तंप बता कर भिक्षा प्राप्त करते ही नहीं हैं। ४५ - - . जैसे देवकी देवी ने लिहाज नहीं रख कर के अपनी शंका यथातथ्य रख दी, वैसे ही धर्मप्रेमी श्रावकों को मुनियों का ध्यान रखना चाहिए। उनमें कोई गलती या संयम विरुद्ध कोई प्रवृत्ति दिखाई दे तो विनयपूर्वक प्रेम से अरज करनी चाहिए। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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