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________________ [4] जिसकी रचना गणधरों ने की हैं इसका रचना काल भगवान् महावीर के समकालीन माना जाता है, शेष अंगबाह्य जिनके रचयिता स्थविर भगवन्त हैं, उनका रचना काल एक न होकर भिन्न-भिन्न है। जैसे दशवैकालिक सूत्र की रचना आचार्य शय्यंभव ने की, तो प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचार्य है, छेद सूत्रों के रचयिता चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु है, जबकि नंदी सूत्र के रचयिता देववाचक है। आगमकालीन युग में आगम लेखन की परम्परा नहीं थी । आगम लेखन कार्य को दोषपूर्ण माना जाता था । इसलिए चिरकाल तक इसे कण्ठस्थ रख कर श्रुत परम्परा को सुरक्षित रखा गया। बाद में बुद्धि की दुर्बलता आने से स्मरण शक्ति क्षीण होने लगी तब देवर्द्धिगंणि क्षमाश्रमण जिनका समय भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ६८० वर्ष पश्चात् का है, कण्ठस्थ सूत्रों को लिपिबद्ध किया गया, जो आज तक आचार्य परम्परा से चला आ रहा है। आगम साहित्य का समवायांग और अनुयोगद्वार सूत्र में केवल द्वादशांगी के रूप में निरूपण हुआ है, पर नंदी सूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दो भेद किये हैं। साथ ही अंग के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक आदि भेद-प्रभेद किये गये हैं। उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद सूत्र और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र के रूप विभाग किया है। सबसे अर्वाचीन यही परम्परा है जो वर्तमान में प्रचलित है। प्रस्तुत अंतकृतदशासूत्र आठवां अंग सूत्र है। इसमें कुल नब्बे महापुरुषों का वर्णन है। जिसमें ५१ महापुरुष भगवान् अरिष्टनेमि के शासन से सम्बन्ध रखने वाले शेष ३६ वर्तमान शासनेश भगवान् महावीर के शासनवर्ती है। इस सूत्र का नाम अंतकृतदशा क्यों रखा गया, इसके लिए बतलाया गया है कि जिन महापुरुषों ने भव का अन्त कर दिया वे अन्तकृत कहलाते हैं। जिन महापुरुषों का वर्णन जिस दशा अर्थात् अध्ययनों में किया हो, उन अध्ययनों से युक्त शास्त्र को 'अन्तकृतदशा' कहते हैं। इस सूत्र के प्रथम एवं अन्तिम वर्ग में दस अध्ययन होने से इसे दशा कहा है। दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि कर्मों और दुःखों का अन्त करने वाले साधकों की जीवन चर्या का वर्णन इस शास्त्र में होने से भी इसका नाम अंतकृत - दशा सूत्र रखा गया है। अथवा जीवन के अन्तिम समय में केवलज्ञान - केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पधारने वाले जीव अंतकृत कहलाते हैं। ऐसे जीवों का वर्णन इस सूत्र में है इसलिए यह सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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