SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ********* वर्ग ६ अध्ययन ३ - अर्जुन अनगार की सहनशीलता *********************************************************** इन पदों से ध्वनित होता है कि अर्जुन अनगार की सहनशीलता आदर्श थी। जो सहनशीलता भय के कारण होती है, वह वास्तविक सहनशीलता नहीं है। जिस क्षमा में क्रोध का अंश विद्यमान है, हृदय में छिपा हुआ है, उसे क्षमा नहीं कहा जा सकता और दीनता पूर्वक की गयी तितिक्षा वास्तविक तितिक्षा नहीं कही जा सकती। तए णं से अज्जुणए अणगारे अदीणे अविमणे अकलुसे अणाइले अविसाई अपरितंतजोगी अडइ, अडित्ता रायगिहाओ णयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे जहा गोयमसामी जाव पडिदंसेइ पडिदंसित्ता समणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारे । कठिन शब्दार्थ - अदीणे अदीन, अविमणे अविमन, अकलुसे - अकलुष, अणाइले - अक्षोभित, अविसाई - विषाद रहित, अपरितंतजोगी - अपरितांन योगी - तनतनाट रहित, अमुच्छिए- अमूर्च्छित, बिलमिव पण्णगभूएणं - बिल में सांप के प्रवेश के समान । भावार्थ इस प्रकार रूखा-सूखा जैसा भी आहार मिल जाता, उसे अदीन, अविमन, अकलुष, अक्षोभित तथा विषाद एवं तनतनाट आदि विक्षेप भावों से सर्वथा दूर रह कर ग्रहण करते और गुणशीलक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आते। भगवान् को आहार- पानी दिखाते और आज्ञा प्राप्त कर के गृद्धिपन से रहित, जिस प्रकार सांप बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से रहित हो, उस आहार- पानी का सेवन करते हुए संयम का • निर्वाह करते थे। विवेचन - भीषण परीषहों को सहन करते हुए भी अर्जुन अनगार की क्षमा अपूर्व थी क्योंकि आक्रोश आदि परीषहों के सहन करने में यदि अंतःकरण में अंशतया भी कषायों का उदय हो जाता है तो आत्मा विकास के स्थान पर पतन की ओर प्रवृत्त हो जाती है। इसकी विशेष प्रति हेतु सूत्रकार ने अदीणे, अविमणे, अकलुसे, अणाइले, अविसाई, अपरितंतजोगीविशेषण दिये हैं। जिसकी व्याख्या टीकाकार अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है - - Jain Education International - १४७ - अदीन - मन में किसी प्रकार का शोक न होने से अर्जुन मुनि अदीन - दीनता से रहित थे । अविमन - समाहित चित्त होने से वे अविमन थे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy