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अन्तकृतदशा सूत्र
विच्छिण्णाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए किंमूलए विणासे भविस्सइ? कण्हाइ! . अरहा अरि?णेमी कण्हवासुदेवं एवं वयासी - एवं खलु कण्हा! इमीसे बारवईए णयरीए दुवालसजोयण-आयामाए णवजोयण-विच्छिण्णाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए सुरग्गिदीवायणमूलए विणासे भविस्सइ।.
कठिन शब्दार्थ - किंमूलए - किस मूल (कारण) से, विणासे - विनाश, सुरग्गिदीवायणमूलए - सुरा (मदिरा), अग्नि और द्वीपायन ऋषि के कारण।
भावार्थ - इसके बाद कृष्ण-वासुदेव ने भगवान् अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा - 'हे भगवन्! बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक के समान इस द्वारिका नगरी का विनाश किस कारण से होगा?'
भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा - 'हे कृष्ण! बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक के समान इस द्वारिका नगरी का विनाश सुरा - मदिरा, अग्नि और द्वीपायन ऋषि के कारण होगा।'
विवेचन - अर्द्ध भरत के तीन खण्डों में इतने दिन अमन-चैन की बंशी,बज रही थी, पर आज अचानक कृष्ण महाराज को द्वारिका के विनाश का मूल जानने की क्या आवश्यकता हुई? कृष्ण महाराज गजसुकुमाल अनगार की अकाल हत्या से बहुत विचार में पड़ गये थे। वे सोचते रहते -
'जब मेरी चढ़ती पुण्यवानी थी तो जरासंध को पराजित कर मैं त्रिखण्डाधिपति बन गया। देवों ने मेरी सहायता की। धनपति कुबेर ने द्वारिका का निर्माण किया। आज तक कोई अप्रिय घटना नहीं घटी, पर यह क्या हो गया? मेरे सगे भाई गजसुकुमाल को, सिर पर धधकते अंगारे डालकर मार डाला गया। वह भी कहीं दूर नहीं राजधानी द्वारिका में - मेरे रहते हुए ही। मेरा भाई ही होता तो बात वहीं तक थी, पर भगवान् अरिष्टनेमिनाथ का अंतेवासी नवदीक्षित संत! उसकी यह प्राणान्त प्रक्रिया!! बस, द्वारिका का विनाश होने वाला है। मेरे पुण्यपुंज का अब जोर नहीं है।'
इसीलिए तो बुद्धिमान् कृष्ण ने यह नहीं पूछा कि विनाश होगा या नहीं? उन्होंने सीधा यही पूछा कि विनाश कैसे होगा?
सुना जाता है कि मदिरा को द्वारिका-विनाश का कारण जान कर कृष्ण महाराज ने मद्य
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