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________________ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - पंचम दशा धूमहीणो - धूमहीन, अग्गी - अग्नि, खीयइ - क्षीयते - क्षय को प्राप्त करते हैं, णिरिधणेईंधन रहित, सुक्कमूले - शुष्कमूल - सूखे हुए मूल, सिंचमाणे - सिंचित किए जाने पर, ण रोहइ - पल्लवित नहीं होता है, दड्डाणं - जले हुए, बीयाणं - बीजों को, पुणंकुरा - पुर्नजन्म रूप अंकुरण, जायंति - उत्पन्न होता है, चिच्चा - त्यक्त्वा - छोड़कर, ओरालियं औदारिक, बोंदि - शरीर को, छित्ता - छित्वा - छिन्न-भिन्न कर, णीरए - नीरज - कर्मरहित, अभिसमागम्म- ऐसा अधिगत कर, सेणिसुद्धिमुवागम्म - क्षपक श्रेणी प्राप्त कर। भावार्थ - हे आयुष्मन्! मैंने सुना है, मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा प्रतिपादित किया है - निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने चित्त समाधि के दश स्थान निरूपित किए हैं। स्थविर भगवंतों ने वे कौनसे दस स्थान बतलाए हैं? स्थविर भगवंतों ने जिन दस स्थानों का निरूपण किया है, वे ये हैं - उस काल में - वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय - जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे, वाणिज्य ग्राम नमक नगर था। यहाँ नगर विषयक वर्णन औपपातिक आदि से कथनीय है। उस वाणिज्यग्राम नामक नगर के बाहर, उत्तर-पूर्व दिशा भाग में - ईशानकोण में दूतीपलाशक नामक चैत्य था। चैत्य का वर्णन अन्य आगमों की तरह ग्राह्य है। वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था, महारानी का नाम धारिणी था, इस प्रकार यहाँ समवसरण पर्यन्त समग्र वर्णन अन्यत्र की तरह योजनीय है, यावत् पृथ्वीशिलापट्टक पर भगवान् समवसृत हुए - पधारे। (भगवान् का आगमन सुनकर) परिषद् - जनसमूह समवसरण में आने हेतु घरों से निकला। भगवान ने धर्मदेशना दी। (श्रवण कर) लोग वापस लौटे।१। . भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों - मुनियों, निर्ग्रन्थिनियों - आर्याओं को, हे आर्यो! यों संबोधित कर इस प्रकार फरमाया - आर्यो! आर्हत् प्रवचन में ईर्या, भाषा, एषणा, आदानभाण्ड-पात्र-निक्षेपणा, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-शिंघाणक-जल्ल-मल समितियुक्त शारीरिक तथा मानसिक - वाचिक एवं कायिक समिति युक्त एवं मनोवाक्काय गुप्तियुक्त, जितेन्द्रिय, सुदृढ ब्रह्मचारी, आत्मार्थी - मोक्षाभिलाषी, आत्महितकर - षड्जीवनिकाय परित्राता, आत्मयोगी - मानसिक, वाचिक, कायिक योगों के नियंत्रक, आत्मपराक्रमी, पाक्षिकपोषध प्रतिपालक, सुसमाधि प्राप्त, ध्यानानुरत मुनियों के पूर्व अनुत्पन्न दस चित्तसमाधि स्थान हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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