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________________ . दशविध वैयावृत्य : महानिर्जरा । २११ ★xxxtataadatdadtattatrakakakakakakakkkkkkkkk************* "एत्थ कुलं विण्णेय, एगायरियरस संतई जाउ। तिण्ह कुलाणमिहं पुण, सावेक्खार्ण गणो होई॥" - भग०सूत्र, शं० ८, उ० ८ वृत्ति (एतत कुलं विज्ञेयम्, एकाचार्यस्य सन्ततिर्यातु। त्रयाणां कुलानामिह पुनः, सापेक्षाणां गणं भवति॥) " एक आचार्य की सन्तति या शिष्य परम्परा को कुल समझना चाहिए। तीन परस्पर सापेक्ष कुलों का एक गण होता है। पंचवस्तुक टीका* में तीन कुलों के स्थान पर परस्पर-सापेक्ष अनेक कुलों के श्रमणों के . समुदाय को गण कहा है। - प्रतीत होता है कि उत्तरोत्तर कुलों की संख्या बढ़ती गई। छोटे-छोटे समुदायों के रूप में उनका बहुत विस्तार होता गया। यद्यपि कल्पस्थविरावली में जिनका उल्लेख हुआ है, वे बहुत थोड़े से हैं पर जहाँ कुल के श्रमणों की संख्या नौ तक मान ली गई, उससे उक्त तथ्य अनुमेय है। पृथक्-पृथक् समुदायों या समूहों के रूप में विभक्त रहने पर भी ये भिन्न-भिन्न गणों से सम्बद्ध रहते थे। एक गण में कम से कम तीन कुलों का होना आवश्यक था। अन्यथा गण की परिभाषा में वह नहीं आता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक गण में कम से कम तीन कुल अर्थात् तदन्तर्वर्ती कम से कम सत्ताईस साधु तथा एक उनका अधिनेता, गणपति या आचार्य - कुल अट्ठाईस सदस्यों का होना आवश्यक माना गया। ऐसा होने पर ही गण को. प्राप्त अधिकार उसे सुलभ हो सकते थे। यह न्यूनतम संख्या-क्रम है। इससे अधिक चाहे जितनी बड़ी संख्या में श्रमणवृन्द उसमें समाविष्ट हो सकते थे। सभी गणों, गच्छों तथा कुलों का सामष्टिक नाम संघ है। ॥ व्यवहार सूत्र का दसवां उद्देशक समाप्त॥ व्यवहार सूत्र समाप्त। ॥त्रीणिछेदसूत्राणिसमाप्त॥ * परस्परसापेक्षाणामनेककुलानां साधूनां समुदाये। - पंचवस्तुक टीका द्वार - १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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