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________________ व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ १९२ ********* विवेचन - इन सूत्रों में साधु-जीवन की विभिन्न स्थितियों का तीन चतुर्भगियों में वर्णन किया गया है। ___ पहली चतुर्भगी साधुधर्म एवं साधुवेश से संबंधित है। साधुधर्म मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदित पूर्वक पाँच महाव्रतों के पालन पर आधारित है। उसमें सावध कर्मों का सर्वथा वर्जन है। रूप साधु के विशेष लिंग या वेश का सूचक है। पहली चतुर्भंगी इन दोनों के आधार पर परिगठित है। _ सर्वश्रेष्ठ साधु वे हैं, जो न अपने धर्म को छोड़ते हैं और न वेश को ही छोड़ते हैं। वे दोनों को कायम रखते हैं। पहली चतुर्भंगी का यह चौथा भंग है। कुछ ऐसे होते हैं, जिन्हें अपरिहार्य कारणवश साधु के वेश को छोड़ देना पड़ता है, किन्तु वे धर्म का त्याग नहीं करते, वैसे व्यक्ति दुर्गति में नहीं जाते क्योंकि वे मूल की हानि या नाश नहीं करते। ____ कई ऐसे होते हैं, जो साधु का वेश तो धारण किए रहते हैं, किन्तु धर्म को छोड़ देते हैं। वे निकृष्टतम हैं, क्योंकि वे केवल साधुत्व का प्रदर्शन करते हैं। __ कई ऐसे होते हैं, जो वेश और धर्म दोनों को ही छोड़ देते हैं। वे मार्गच्युत होते हैं, किन्तु वे वेश रखने तथा धर्म छोड़ने वाले व्यक्ति जैसे अपराधी नहीं होते। दूसरी चतुर्भंगी धर्म और गण की मर्यादा पर आधारित है। जो साधु धर्म और गणमर्यादा दोनों का ही त्याग नहीं करता - परिपालन करता है, वह सर्वोत्तम है। जो धर्म एवं गण-मर्यादा दोनों को ही छोड़ देता है, वह सबसे निकृष्ट है। जो धर्म को छोड़ देता है, किन्तु गण-मर्यादा को नहीं छोड़ता, वह मूल का नाश कर देता है, अतः मार्गच्युत है। किन्तु गण-मर्यादा का पालन करना उसका सद्भाव है। जो गण-मर्यादा छोड़ देता है, किन्तु धर्म को नहीं छोड़ता वह धर्म छोड़ने वाले, मर्यादा का पालन करने वाले से श्रेष्ठ है। क्योंकि वह मूल का नाश नहीं करता, किन्तु साधुत्व के परिपूर्ण स्वरूप से वह रहित है। तीसरी चतुर्भगी धर्म की प्रियता और दृढता से संबंधित है। धर्मप्रियता का संबंध भक्ति एवं प्रगाढ़ श्रद्धा से और धर्म दृढता का संबंध मानसिक स्थिरता एवं गंभीरता से है। जिस साधु में धर्मप्रियता एवं धर्मदृढता ये दोनों गुण हों, वह सर्वश्रेष्ठ है, जिसका इस चतुर्भंगी के तीसरे भंग में उल्लेख हुआ है। चौथे भंग में ऐसे साधु का उल्लेख हुआ है, जिसे धर्म न तो प्रिय है और न जो धर्म में दृढ है, वह निम्नतम कोटि का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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