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दत्त-विषयक प्रमाण
इन प्रतिमाओं की आराधना करना साधारण साधक के वश की बात नहीं है, भाष्य में तीन संहनन युक्त पूर्वधारी साधु को ही इनकी आराधना का अधिकारी बतलाया है। साध्वियाँ इन प्रतिमाओं की आराधना नहीं कर सकती क्योंकि इनमें दुर्गम वन, पर्वत आदि स्थानों में एकाकी रहते हुए कायोत्सर्ग पूर्वक साधना करना आवश्यक है।
क्षुद्रिका या छोटी मोक प्रतिमा का कालमान सात अहोरात्र का है। दूसरी महतिका बड़ी मोक प्रतिमा का कालमान आठ अहोरात्र का है। दोनों की ही दो-दो विधियाँ हैं १. प्रथम दिन आहार कर प्रतिमा को शुरू करना, २ . बिना आहार किए उपवास पूर्वक प्रतिमा को शुरू करना ।
पहली विधि में दोनों में क्रमश: छह एवं सात उपवास होते हैं, दूसरी में क्रमश: सांत और आठ उपवास होते हैं । अर्थात् दूसरी विधि में सारे ही दिन उपवास में निकलते हैं। छोटी-बड़ी का अन्तर एक दिन की अधिकता पर आधारित है।
प्रस्रवण-पान का प्रसंग साधारणजनों को सहसा जुगुप्सनीय प्रतीत होता है, क्योंकि सामान्यजनों द्वारा ऐसा किया जाना अति दुष्कर है। पुनश्च ऐसा करने में जुगुप्सा या घृणा विजय का उच्च भाव अन्तःकरण में होना चाहिए। उच्च कोटि के साधक, जो परभाव से अपने को क्रमशः हटाते जाते हैं, उससे ऊँचे उठ जाते हैं, वे ही ऐसा करने में समर्थ होते हैं । जब साधक आध्यात्मिक भाव में प्रकर्ष पा लेता है, तब दैहिक और भौतिक उत्तमता - अधमता से वह अतीत हो जाता है।
वाममार्गी साधनाक्रम में भी ऐसे साधकों का उल्लेख मिलता है, जो उच्चार- प्रस्रवण विषयक जुगुप्सनीयता के ऊपर सर्वथा विजय पा लेते हैं, उन्हें वाक्-सिद्धि प्राप्त हो जाती है।. चिकित्सा के क्षेत्र में भी प्रस्रवण-पान पर गहन, सूक्ष्म चिन्तन - अन्वेषण हुआ है। भीषण रोगों के विनाश में इसकी उपयोगिता स्वीकार की गई है। वहाँ यह 'शिवांबु' शब्द से अभिहित हुआ है।
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दत्ति-विषयक प्रमाण
संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स जावइयं केइ अंतो पडिग्गहंसि उवइत्तुं दलएज्जा तावइयाओ ताओ दत्तीओ वत्तव्वं सिया, तत्थ से केइ छव्वएण वा दूसएण वा वालएण वा अंतो पडिग्गहंसि
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