________________
व्यवहार सूत्र नवम उद्देशक
२५०. सागारिक की अन्य की भागीदारी से रहित मिठाई की दुकान से साधु को मिठाई ना कल्पता है ।
२५१. सागारिक की पाकशाला भोजनशाला से अन्यान्यजनों की सहभागिता युक्त (चावल, गेहूँ आदि से निष्पादित ) बने हुए, रखे हुए खाद्य पदार्थों में से साधु को किसी पदार्थ को लेना नहीं कल्पता ।
२५२. सागारिक की पाकशाला भोजनशाला से अन्यान्यजनों की सहभागिता रहित बने हुए, रखे हुए खाद्य पदार्थों में से साधु को किसी पदार्थ को लेना कल्पता है ।
२५३. सागारिक के अन्यान्यजनों के सहभागिता के साथ रखे हुए आम के फलों में से साधु को आम लेना नहीं कल्पता ।
२५४. सागारिक के अन्यान्यजनों के सहभागिता के बिना अर्थात् उसके अकेले अपने ही स्वामित्व से युक्त रखे हुए आम के फलों में से साधु को आम लेना कल्पता है ।
विवेचन जैन शास्त्रों के विधान के अनुसार साधु-साध्वी उसी व्यक्ति से कोई आवश्यक वस्तु ले सकते हैं, जो उसका सम्पूर्णतः अधिकारी हो। जिस पदार्थ या वस्तु पर एकाधिक व्यक्तियों का अधिकार हो, वैसी वस्तु को वे नहीं ले सकते। कोई ऐसी दुकान, जो एक से अधिक व्यक्तियों की भागीदारी से चलती हो, उससे साधु किसी एक सागारिक से, व्यापारिक गृहस्थ से कोई वस्तु नहीं ले सकता, क्योंकि उस विक्रय केन्द्र या दूकान पर किसी व्यक्ति का अकेले का अधिकार नहीं होता। इसलिए कोई एक व्यक्ति वहाँ से कोई वस्तु देने का अधिकारी नहीं होता। अत एव अनधिकारी से कोई पदार्थ या वस्तु लेना साधु-साध्वियों के लिए वर्जित कहा गया है, क्योंकि वैसा करने से अदत्त वस्तु लेने का दोष लगता है।
. इन सूत्रों में जिन वस्तुओं का उल्लेख हुआ है, वे अधिकांशतः दिन-प्रतिदिन लेने की नहीं है। दिन-प्रतिदिन तो केवल आहार- पानी ही लिया जाता है। किन्तु मानव शरीर की आवश्यकतावश कभी कोई वस्तु यदा कदा अपेक्षित हो जाती है। अतः अचित्त निर्वद्य रूप में साधुचर्या के नियमानुसार उसे ग्रहण किया जा सकता है।
यहाँ वस्त्र के लिए दूष्य ( दोसिय) शब्द का प्रयोग हुआ है । 'दूष्यति प्रयोगेण परिधारणेन वा इति दूष्यम्' - जो प्रयोग करने से या धारण करने से दूषित या मैला होता है, उसे दूष्य कहा जाता है । वस्त्र पर यह विशेष रूप से लागू होता है । इसलिए इस सामान्य अर्थद्योतक शब्द का वस्त्र में विशेष रूप से अर्थ सन्निहित हो गया। ऐसे शब्द योगरूढ कहे जाते हैं।
Jain Education International
-
-
१६२
****
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org