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________________ व्यवहार सूत्र - नवम उद्देशक '१५८ चूल्हे पर उसी की सामग्री से आहार बनाकर जीवन निर्वाह करता हो। यदि वह उस आहार में से भिक्षार्थ साधु को दे तो साधु को उसे लेना नहीं कल्पता। ___२३३. शय्यातर का कोई स्वजन उसी के घर के पृथक् विभाग में रहता हो, जो बाहर जाने-आने के एक ही द्वार से घर से जुड़ा हो, वह घर के बाहर शय्यातर के ही चूल्हे पर उसी की सामग्री से आहार बनाकर जीवन निर्वाह करता हो। यदि वह उस आहार में से भिक्षार्थ साधु को दे तो साधु को उसे लेना नहीं कल्पता। २३४. शय्यातर का कोई स्वजन उसी के घर के पृथक् विभाग में रहता हो, जो बाहर जाने-आने के एक ही द्वार से घर से जुड़ा हो, वह घर के बाहर शय्यातर के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर उसी की सामग्री से आहार बनाकर जीवन निर्वाह करता हो। यदि वह उस आहार में से भिक्षार्थ साधु को दे तो साधु को उसे लेना नहीं कल्पता। - विवेचन - साधु-चर्या में भिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह दैनन्दिन आवश्यकताओं में सबसे मुख्य है। संयम के साधनभूत शरीर को निरवद्यता पूर्वक चलाना आवश्यक है। भिक्षा द्वारा ही इस आवश्यकता की पूर्ति होती है। भिक्षाचर्या सर्वथा अदूषित, संपूर्णत: शुद्ध हो, इस ओर अत्यन्त जागरूक रहना, प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए आवश्यक है। - साधु-साध्वी उन्हीं का आहार पानी ले सकते हैं, जिनका भोज्य सामग्री से सीधा स्वामित्व या अधिकार जुड़ा हो। अनधिकारी से भिक्षा ग्रहण-करना दोष युक्त है। एक गृहस्थ का जीवन पारिवारिक, स्वजातीय, सामाजिक आदि संबंधों के कारण अनेक लोगों से जुड़ा हुआ होता है। अनेक संबंधी, मित्र एवं परिचित आदि उसके यहाँ समय-समय पर प्रयोजनवश आते रहते हैं। अनेक भृत्य, सेवक, परिचारक आदि उसके घर में काम करते हैं। इन सबके भोजन की व्यवस्था, सुविधा अनेक रूपों में की जाती है। वैसे विविध प्रसंगों को दृष्टि में रख कर इन सूत्रों में भिक्षा की विशुद्ध ग्राह्यता के संबंध में समीक्षा की गई है, जिसका आशय भावार्थ से स्पष्ट है। इसका एक मात्र अभिप्राय यह है कि साधु-साध्वियों द्वारा आहार-पानी पूर्ण गवेषणा के अनन्तर उसी व्यक्ति के यहाँ से ही लिया जाए, जिसका स्वामित्व यथार्थ रूप में उस आहार के साथ जुड़ा हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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