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शय्यासंस्तारक
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इसका एक अर्थ प्रशस्ति भी है। धन, धान्य, समृद्धि, वैभव आदि के कारण बड़ी प्रशस्ति का अधिकारी होने से भी एक संपन्न, समृद्ध गृहस्थ के लिए इस शब्द का प्रयोग. टीकाकारों ने माना है।
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आनयन-विधि
गाहा - गाथा का प्राकृत में आर्या छन्द के लिए भी विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। यह छन्द प्राकृत में बहुत अधिक प्रयोग में आता रहा है। महाकवि हाल की गाहासतसई - गाथा सप्तशती प्राकृत वाङ्मय की एक महत्त्वपूर्ण कृति है । आर्या या गाथा छन्द का निम्नांकित लक्षण है.
'यस्याः पादे प्रथमे, द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादशद्वितीय, चतुर्थके पंचदशाऽऽर्या ॥
जिसके प्रथम तथा तृतीय चरण में बारह मात्राएँ होती हैं, द्वितीय चरण में अठारह मात्राएं होती हैं एवं चतुर्थ चरण में पन्द्रह मात्राएँ होती हैं, वह आर्या या गाथा छन्द कहा जाता है।
इस सूत्र में गाहा का प्रयोग गृह या निवास स्थान के अर्थ में हुआ है।
साधु प्रवास हेतु जहाँ रुके हों, वहाँ अपने लिए शयन-स्थान का चयन किस प्रकार करे, उसका विधिक्रम यहाँ बतलाया गया है। वे मनचाहे रूप में शयन-स्थान प्रतिगृहीत न करें, स्थविरों की आज्ञा से करें, ऐसी मर्यादा है। यदि किसी कारण वश स्थविरों की अनुज्ञा प्राप्त न हो तो फिर जो साधु ठहरे हुए हों, वे दीक्षा - ज्येष्ठता के क्रम से स्थान का चयन करें, अर्थात् जो दीक्षा में बड़े हों, पहले स्थान चयन का अवसर उन्हें रहे, आगे उसी क्रम से स्थान चयन होता जाए।
दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ होना अपने आप में विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उनका साधनाकाल लम्बा होता है। साधु - जीवन में साधना का सर्वोपरि महत्त्व है । अतः उनके प्रति प्रतिष्ठा, सम्मान, आदर तथा विनय का भाव सदैव रहे, उनको अपने से उच्च एवं वरिष्ठ माना जाए। इस सूत्र का यह निष्कर्ष है ।
शय्यासंस्तारक आनयन-विधि
से अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा, जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाएगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा परिवहित्तए, एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ ॥ २०४ ॥
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